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( ४२० ) अहिंसा परमो धर्मः सत्यमेव द्विजोत्तमाः । लोमीद्वा मोहतो वापि यो मसिान्यत्ति मानवः ॥१२॥ निघृणः स तु मन्तव्यः सर्व धर्म-विवर्जितः । स्वमसि परमसिन यो वर्धयितुमिच्छति ॥१३॥ उद्विग्न वासे बसति यत्र यत्रीभिजायते , अर्थ-अहिंसा सचमुच ही श्रेष्ठ धर्म है । जो मनुष्य लोभ से अथवा मोह के वश होकर प्राणियों के मांस खाता है उसे दया हीन समझना चाहिये, और पर प्राणियों के मांस से जो अपना मांस बढाना चाहता है । वह सर्व धर्मों से हीन होता है । और यह जहाँ जहाँ उत्पन्न होता है वहां वहां उद्धगमय जीवल बिताता है।
धनेन ऋयिको हन्ति उपभोगेन खादकः । घातको वध बंधाभ्यामित्येष त्रिविधो वधः ॥१४॥ भक्षयित्वा तु यो मांसं पश्चादपि निवर्तते । तस्यापि सुमहान् धर्मो यः पापाद्विनिवर्तते ॥१५॥ राबसै वो पिशाचै वा डाकिनीभिर्निशाचरैः । तथान्यैर्नामिभूयेत यो मांसं परिवर्जयेत् ॥१६॥ अर्थ-मांस को खरीदने वाला धन द्वारा हिंसा करता है, मांस खाने वाला मांस के उपभोग से हिंसा करता है और मारने बांब प्रहार तथा सख्त बन्धन द्वारा पशु पक्षियों की हिंसा करता है, मांस