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( ४१६ ) अर्थात्-मधु मांस के त्याग से मनुष्य सदा अन्न सत्र चलाने पाला, दान देने वाला और तपकरने वाला माना जाता हैं ।
सर्वे बेदा न तत्कुयुः सर्व दानानि चैव हि । यो मांसरसमास्वाद्य सर्व-मांसानि वर्जयेत् ॥८॥ अर्थ - जो मांस का रस चखकर सर्व मांसों का त्याग करता है उसके लाभ की बराबरी न सर्व वेद कर सकते हैं, न सर्व प्रकार के दान ।
दुष्करं हि रसज्ञेन मांसस्य परिवर्जनम् । कर्तुत मिदं श्रेष्ठं ग्राणिनां मृत्यु भीरुणाम्॥६॥
तदा भवति लोकेऽस्मिन्प्राणिनां जीवितैषिणाम् । विश्वासश्चोपगम्यश्च न हि हिंसा रुचिर्यथा ॥१०॥
अर्थ-मांस रस के जानने वाले का मांस त्याग करना दुष्कर होता है. व्रताचरण करने वाले के लिये यह ( अहिंसाव्रत ) वडा श्रेष्ठ है इस व्रत का आचरण करने पर मनुष्य मृत्यु से डरने वाले प्राणियों तथा जीवितार्थी प्राणियों के लिये जैसा विश्वास पात्र तथा निर्भय स्थान बनता है वैसा हिंसा रुचि नहीं ॥१॥
प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा ।
आत्मौपम्येन गन्तव्यमात्मविद्भिर्महात्मभिः ॥११॥ अर्थ-जैसे अपने प्राण आपको प्रिय है वैसे ही अन्य प्राणियों को भी उनके प्राण प्यारे हैं । यह जानकर महात्माओं को सब को आत्म सदृश मानकर चलना चाहिये ।