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( ३६६ ) अथ-सन्यासी अंगुष्ठ के बिना केवल अंगुलियों से भोजन न करे, न जीभ से हाथ को चाटे, भोजन करता हुआ यदि हाथ को चाट जाय तब चान्द्रायण व्रत से प्रायश्चित्त करे .
संन्यासी को वर्जित कार्य मेधातिथि कहते हैं
आसनं पात्रलोपश्च, संचयः शिष्य-संग्रहः। दिवास्वापो वृथालापो, यतेर्बन्धकराणि षट् ॥
अर्थ-किसी स्थान में सदा के लिये आसन स्थापित करना, योग्य अधिकारी को छोडकर अयोग्य व्यक्ति को किसी पद पर नियुक्त करना, परिग्रह ( इकट्ठा करना ), शिष्य समुदाय बढाना, दिन में सोना, निरर्थक भाषण करना ये छः बातें यति के लिये कर्मबन्ध कराने वाली हैं।
मेधातिथि कहते हैंस्थावरं जङ्गमं बीजं, तैजसं विषमायुधम् । षडेतानि न गहणीयाद् यतिमूत्र पुरीषवत् ॥ रसायन क्रियावादो, ज्योतिष क्रय विक्रयम् । विविधानि च शिल्पानि, वर्जयेत्परदारवत् ॥ अर्थ-स्थावर, जङ्गम, धन, धान्य, सुवर्ण रुप्यादि धातु, जहर शस्त्र संन्यासी इन छः वस्तुओं को मल मूत्र की तरह ग्रहण न करे ।
रसायन क्रिया, वाद विवाद, ज्योतिषशास्त्र, क्रय विक्रय, अनेक प्रकार के शिल्प, यति इनको परस्त्री की तरह वर्जित करे।