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( ३६८ ) '. अष्टौ ग्रासा मुनेः प्रोक्ता, षोडशारण्यवासिनः।
द्वात्रिंशच गृहस्थस्य, यथेष्टं ब्रह्मचारिणः ॥ अर्थ-मुनि को आठ प्रास प्रमाण भोजन कहा है, वानप्रस्थ को सोलह प्रमाण, गृहस्थ को बत्तीस कवल भोजन और ब्रह्मचारी को यथेष्ट भोजन करने का अधिकार है।
भत्रि कहते हैंहितं मितं सदाश्नीयाद् , यत्सुखेनैव जीर्यते । .... धातुः प्रकुप्यते येन, तदनं वर्जयेद् यतिः ॥ अर्थ-यति को हितकर परिमित, सुख से जो पाचन हो वैसा भोजन करे जिस भोजन से धातु प्रपति हो वैसा भोजन भिक्षु कदापि न करे। कएव कहते हैं
अबिन्दु यः कुशाग्रेण, मासि मासि समश्नुते । निरपेक्षस्तु भिक्षाशी, स तु तस्माद् विशिष्यते ॥
अर्थ-जो भिक्षु प्रतिमास कुश के अग्रभाग पर रहे हुए जलविन्दु समान भोजन लेता है, उस तपस्वी भिक्षु से निरपेक्ष (अकृताऽकारिताऽऽदि भिक्षाऽन्न) खाने वाला भिक्षु विशेष तपस्वी होता है।
आश्वलायन कहते हैंबिनांगुष्ठेन नाश्नीयान्न, लिहेज्जिह्वया करम् । प्रश्नन् यदि लिहेद्, धस्तं तदा चान्द्रायणं चरेत् ।।