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( ३८४ ) न च कांस्येषु भुञ्जीयादापधपि कदाचन । मलाशा सर्व एवैते, यतयः कांस्यभोजिनः ॥१४४॥
अर्थः-अंत्रि स्मृतिकार कहते हैं-सोने के, लोहे के, साम्य के, कांशे के और रजत के पात्र में भिक्षा देना गृहस्थ का धर्म नहीं है और ऐसे पात्रों में भोजन करने वाला भितु मलिन पदार्थ का भोजन करता है।
यति को आपत्काल में भी कांस्यपात्र में भोजन नहीं करना चाहिये, जो यति कांस्यपात्र में भोजन करते हैं, वे स विष्ठा कांब भोजन करते हैं।
इस विषय में दूसरों का यह मत है- . सौवर्णायसताम्रषु, कांस्यरेप्यमयेषु च। । भुञ्जन् भिक्षुर्न दुष्येत, दुष्येच्च व परिग्रहे ॥१५६॥
अर्थः-सौवर्ण, लौह, ताम्र कांस्य और रौप्यमय पात्र में भोजन करने मात्र से भिनु दोषी नहीं होता किन्तु इन पात्रों में से किसी को भी स्वीकार करने पर वह दोषी माना जा सकता है ।
भिक्षु को कितने पात्र रखना चाहिये इस विषय में जाबाल : स्मृतिकार कहते हैं:
एकपात्रं तु भिक्षूणां, निर्दिष्टं फलमुत्तमम् । नैष दोषो द्विपात्रेण, अशक्तौ व्याधिपीड़िते ।। अर्थः-भिक्षुओं को प्रति व्यक्ति एक एक पात्र रखना उत्तम है, परन्तु अशक्तावस्था में अथवा व्याधि से पीडित होने पर दो पात्र रखने पर मी दोष नहीं है।