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संन्यासियों के पात्र संन्यासी के पात्र सम्बन्ध में याज्ञवल्क्य लिखते हैं । यति पात्राणि मृद्वेणु, दालाबुमयानि च । सलिलं शुद्धिरित्येषां, गोवालैश्वावधर्षणम् ।। अर्थः-संन्यासियों के पात्र मिट्टी, बांस, लकड़ी, तुम्बे के होते हैं, और इनकी शुद्धि जल से धोकर गोबालों के घिसने से होती है। पात्र के विषय में और भी निम्नलिखित उल्लेख मिलते हैं। अवैजसानि पात्रास्थि, भिक्षावं लप्तवान् मनुः ।
सर्वेषामेव भिक्षूणां, दार्वलाबुमयानि च । X . X. ....
x x . अर्थ:-मनुजी ने भितुओं के भिक्षापात्र अतैजस अर्थात् धातु वर्जित पदार्थ के नियत किये हैं। __सर्व प्रकार के भिक्षुओं के भिक्षा पात्र लकडी के तथा तुम्बे के होने चाहिए।
.: वर्जित भिक्षा पात्र सौवर्णायसताम्रषु, कास्यरेप्यमयेषु च । भिचदार्न धर्मोऽस्ति, भिक्षुझुङक्त तु किन्विषम् ॥१४॥