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. ( २६८ ) रखकर शेष सभी का त्याग करने का नाम वृत्ति संक्षेप है, दूध, दही, घी, सक्कर, पक्वान्न आदि में से अमुक अथवा सभी त्याग करना इसका नाम रस-त्याग है । इच्छा पूर्वक शारीरिक कष्ट केश लोच वीरासन, आदि कष्टकारी क्रियायें करना कायल श तप है, इन्द्रियों को वश कर निर्जन स्थानों में निवास करना मलीनता • नामक तप है।
पायच्छित्तं विणो, वेयावच्चं तहेव सज्झायो।
माणं उस्सग्गोविय, अभितरो तवो होई ॥२॥ . अर्थ-प्रायश्चित्त १, विनय २, वैयावृत्त्य ३, तथा स्वाध्याय ४, ध्यान ५, और उत्सर्ग ६, यह प्राभ्यन्तर तप होता है।
भावार्थ-प्रायश्चित का तात्पर्य है, अपना अपराध गुरु के समक्ष प्रगट कर गुरु से उसके शुद्धथर्थ दण्ड लेना, विनय का अर्थ अपने पूजनीय पुरुषों के सामने नम्रभाव से वर्तना, वैयावृत्त्य का तात्पर्य है सेवा करना बाल, वृद्ध, ग्लान, आचार्य, उपाध्याय
आदि के लिये जरूरी कार्यों में प्रवृत्त होने का नाम वयावृत्य तप है । सूत्र सिद्धान्त का पाठ-पारायण करना स्वाध्याय कहलाता है, मानसिक, कायिक वाचिक एकाग्रता पूर्वक आत्मचिंतन को ध्यान कहते हैं । उत्सर्ग का पूरा नाम है कायोत्सर्ग, शरीर का मोह छोड़ कर बैठे-बैठे अथवा खड़े-खड़े पवित्र नाम का स्मरण करना अथवा मानसिक एकाग्रता साधने का नाम है कायोत्सर्ग । लोकदृष्टि में तपोरूप न होने पर भी इन छह ही प्रकारों को नैन श्रमण आभ्य