________________
( २६७ )
जैन श्रमण का तप यों तो जैन वैदिक बौद्ध आदि भारत वर्षीय सभी सम्प्रदायों में तप का महत्त्व माना गया है। तपस्वी, तापस आदि नाम तपस् शब्द से ही निष्पन्न हुए हैं, फिर भी जैन श्रमणों का तप कुछ विशेषता रखता है। जैन श्रमण पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिकादि नियत तप तो करते ही हैं, परन्तु इनके अतिरिक्त अनेक प्रकार की तपो विधियां जैन सूत्रों में दी गयी है । जिनके अनुसार भिन्न भिन्न तपस्या का आराधन करके श्रमण अपने कर्मों की निर्जरा किया करते हैं।
द्वादश विध तप जैन शास्त्र कारों ने सामान्य रूप से तप के दो प्रकार माने हैं, एक बाह्य दूसरा आभ्यन्तर । इस प्रत्येक प्रकार के छः छः उपभेद बताये गये हैं, जो निनोद्धृत गाथाओं से ज्ञात होंगे।
अणसणमूणोअरिया, वित्तिसंखेवणं रसच्चायो । काय किलेसो संलीनया य, वज्झो तवो होइ ॥१॥
अर्थ-अनशन १, ऊनोदरिका २, वृत्ति संक्षेप 3, रसत्याग ४ कायक्लेश ५, और संलीनता ६, इस प्रकार का बाह्य तप होता है।
भावार्थ-इस का तात्पर्य यह है कि भोजन न करना यह अनशन कहलाता है, भूख से इच्छा पूर्वक कम खाना ऊनोदरिका अथवा अवमौदर्य कहलाता है, अनेक खाद्य चीजों में से अमुक