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हरिप्रभ सूरि कृत माना जाता है, परन्तु वास्तव में यह संग्रह ग्रंथ है। इसमें हरिमंद्र सूरि के ग्रन्थों के उद्धरण भी संगृहीत हैं, परन्तु अधिकांश गाथायें बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी की संगृहीत की है । 'पुरफामिस" इत्यादि गाथा हरिभद्रसूरिकृत 'स्तव विधिपचाशक की हैं।
त्रिविध पूजा का प्रतिपादक श्लोक नवाङ्गी वृत्तिकार आचार्य श्री अभय देव सूरिजी के मुख्य पट्टधर आचार्य श्रीवर्धमान सूरि की कृति "धर्म रत्नकरण्डेक" का है। इस ग्रंथ की रचना विक्रम संवत् ग्यारह सौ बहत्तर (१९७२) में हुई हैं ।
ऊपर के प्रमाणों से यह निश्चित होता है कि आमिष शब्द जैन विद्वानों में विक्रमीय बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक आहार अथवा नैवेद्य के अर्थ में प्रचलित था ।
११ - इस अवतरण में हमने “ कप्पसूय सामाचारी" में आये हुए : मद्य शब्द के विषय में कुछ विवेचन किया है । "कप्प सूर्य" का विदेशी भाषाओं में अनुवाद करने वाले विद्वानों ने "मज्जं " इस शब्द के आधार से यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि पूर्वकाल में जैन श्रमरण भी कभी कभी मदिरा पान करते थे । उनके इस अज्ञान को प्रगट करने के लिये ही मद्यशब्द पर कुछ लिखने की आवश्यकता उपस्थित हुई है । मद्य अत्यल्प मादकता का गुण रखने वाला भी होता है, और तीव्र मादकता वाला भी । द्राक्षासव आदि औषधीय विधि से बनाये हुए पानक भी एक प्रकार के मद्य ही
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