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( २०१ ) कूष्माण्ड फल ही बताये हैं। टीकाकारों तथा हमको शब्द कोशों तथा निघण्टुओं का साथ है । कोश निघण्टुओं में कपोत पक्षी को ही नहीं माना बल्कि सौवीराञ्जन, सज्जोखार और कर्बुर रंग के अनेक पदार्थों को कपोत कह कर वर्णन किया है। कूष्माण्ड फल भी "वर्णतद्वतोरभेदः” इस नियमानुसार उस समय कपोत नाम से व्यवहृत होता था । कपोत के साथ आया हुआ शरीर शब्द स्वयं कपोत का फलत्व सिद्ध करता है।
जैन सूत्रों में सजीव पदार्थ के साथ शरीर शब्द का प्रयोग नहीं होता, किन्तु फल के साथ ही होता है। जैसे-"दुखे आमलग सरीरे” ( सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रे नक्षत्र भोजने) इत्यादि । ___ इसके अतिरिक्त उस समय वैदिक धर्मशास्त्रकार कपोत पक्षी को अभक्ष्य मानते थे । तब रेवती जैसी प्रतिष्ठित महिला महावीर जैसे अहिंसा धर्म के उपदेशक के निमित्त दो कबूतरों को पका कर तैयार करे, यह कितनी अघटित बात है । केवल कूष्माण्ड फल के लिये ही नहीं, निघण्टुओं में "श्वेत कापोतिका'' "कृष्ण कापोतिका "रक्त कापोतिका" नाम से वनस्पतियों का भी वर्णन किया गया है । हम आशा करते हैं कि हमारे संक्षिप्त निरूपण से पाठकगण समझ सकेंगे कि "दुवे कवोय सरीरा" इन शब्दों का वास्तविक अर्थ क्या है। - १०-इस भक्तरण में दिये गये दो पद्यों में से पहला "सम्बोध प्रकरण" का है । सम्बोध प्रकरण प्रसिद्ध आचार्य श्री।