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( २०३ ) माने जाते हैं, फिर भी उनको सुरा, मदिरा अथवा शराब नहीं कह सकते,क्योंकि इन फानकों में मुरामकिरा आदि जैसा मादकत्व नहीं होता।
पुलस्त्य ऋषि ने बारह प्रकार के मद्य बताकर केवल सुरा को ही अभक्ष्य बताया है
पानस-द्राक्षा माध्वीकं, खाजूरै तालमैक्षवम् । माध्वीकं संकमार्कीकमैरेयं- नारिकेलजम् ॥ सामान्यानि द्विजातीनां, मद्यान्येकादशैव तु । द्वादशं तु सुरा मद्य, सर्वेषामधमं स्मृतम् ।।
अर्थ-पनस का, द्राक्षा का, महुए का, खजूर का, ताड़का, गन्ने का, माध्वीक, टंक का, मृद्विका का, इरा का, नारिकेर का, ये ग्यारह मद्य द्विजाति ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के लिये सामान्य है, तब सुरा नामक मद्य सब के लिये अधम कहा गया है।
सुरा मद्य को श्रमण सन्यासियों के लिये बहुत ही बुरी चीज मानी जाती थी । भूल से भी श्रमण मदिरा घर में चला न जाय इस के लिये महाराष्ट्र आदि देशों में तो मदिरा घरों के ऊपर अमुक जाति का ध्वज लगाया जाता था, जिससे साधु लोग उसे मदिरा घर जान कर भूल से भी उसमें नहीं जाते । इस विषय की सूचना बृहत्कल्प की निम्नलिखित पंक्तियों से मिलती है
रसायणो तत्थ दिढतो ॥३५३६॥