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अर्थ - नागर बेल का पान लेकर उस पर पहले वेस वार ( मशाले ) का लेप करना फिर उसे बराबर चौडा करके माष की पिष्टि लगाना और हिंगु मिले गर्म तैल में भूज देना, जब सी कर कठिन हो जाय तब काट कर मत्स्याकृति बनाके फिर वेसवार ( मशाले ) वाले इमली के पानी में रांध लेने से वह मत्स्य बन जाता है, इसे अम्लिका मत्स्य कहते हैं ।
उक्त अम्लिका मत्स्य के निर्माण में कांटे का उपयोग करने का नहीं लिखा है, फिर भी इस प्रकार के खाद्यों के निर्माण में कांटों से काम लेते थे, इसमें कोई शङ्का नहीं है । इस मत्स्य की रचना में भी पान पर माषपिष्टि लगा कर वह बिखर न जाय इस हेतु से पान के किनारे एक दूसरे के साथ कांटे से सी लिये जाते होंगे ऐसा अनुमान करना निराधार नहीं है ।
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३ - निशीथाध्ययन के इस अवतरण से यह सिद्ध होता है कि जैन श्रमण मांस मत्स्य खाने वाले मनुष्यों के घर से आहार पानी नहीं लेते थे । यदि वे मांस मत्स्य खाना छोड़कर वनस्पति भोजी बन जाते और अपनी जाति के नीचे कर्मों के करने से हट जाते, तो श्रमण उनके यहां से खान पान लेने में कोई आपत्ति नहीं मानते ।
४- उक्त अवतरण निशीथाध्ययन का "संखडि सूत्र" है । इस में आये हुए मांस मत्स्यादि शब्दों के अर्थ तथा भोजन विशेषों के पारिभाषिक नामों के अर्थ आचाराज के "संखडि सूत्र" में लिखा है, उसी प्रकार समझ लेना चाहिए ।
सूत्र