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अनेक वृक्षों के नाम हैं, और वे सभी एकास्थिक हैं क्योकि उनके प्रत्येक फल में एक एक बीज होता है और वह अस्थिक कहलाता है ।
उद्धृत सूत्र के अवतरणों में आये हुए मांस शब्द के साथ कहीं भी अट्ठि शब्द नहीं आया, किन्तु सर्वत्र अट्टिय शब्द ही प्रयुक्त
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हुआ है । परन्तु जिनको “जैन साधु भी पहले मांस खाते थे" यह सिद्ध करके अपना नाम प्रसिद्ध करने की धुन लगी हुई थी वे प्राक, प्राकट्टि, अट्टिय इन शब्दों का भेद समझने का कष्ट क्यों उठाते ।
इस सूत्र में आया हुआ मत्स्य शब्द भी जलचर मत्स्य का बोधक नहीं है, किन्तु मत्स्य के आकार वाले पिष्ट से बनाये हुए नकली मत्स्य का वाचक है। आज कल मिष्टान्न भोजन के साथ भुजिए, बड़े सेवियां आदि मसाले वाले खाद्य बनाते हैं, उसी प्रकार पहले भी बनाये जाते थे, और भिन्न भिन्न नामों से पुकारे जाते थे । उनमें एक का नाम मत्स्य भी होता था जो पुराने पाकशास्त्रों से जाना जाता है। " क्षेमकुतूहल" नामक ग्रंथ में ऐसे मत्स्य की बनावट बताई है। जो नीचे लिखी जाती है
नागवल्लीदलं ग्राह्यं वेसवारेण लेपितम् । माषपिष्टिकया लिप्तं संप्रसार्य समाकृतिम् ॥ स्विन्न माखण्डितं तैलं भृष्टं हिंगु-समन्विते । रन्धयेद् बेसवाराम्लैरम्लिका मत्स्यका इमे ॥