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( १७६ ) उक्त प्रकार की सात सौवीरिणियों में से सप्तम प्रकार की सौचीरिणी में से निकाला हुआ सौवीर जल जैन श्रमण ग्रहण कर सकता था । अन्य प्रकार की सौवीरिणी में से नहीं।
मूलभरणं तु वीया ताहि छम्मासान कप्पए जाव 1, तिनि दिणा कढिएण चाउल उदये तहा आमे॥१७५७
अर्थ-जो सौवीरिणी अचित्त है, उसमें साधु के निमित्त राई, जीरक आदि डाल दिया जाय तो उस सौवीरिणी में से छः महीने तक साधु को सौवीर जल लेना नहीं कल्पना, अगर उस आधा कर्मिक सौवीराम्ल को निकाल कर उसी कुम्भ में चावल का धावन अथवा अवस्त्रावणं डाला जाय तो वह भी पूति कर्म होने के कारण से तीन दिन तक साधु ले नहीं सकता, उसके उपरान्त यह साधु के लेने योग्य बनता है। जं जीव जुयं भरणं. तदफासुयं फासुयं तु तदभावा । तं पि यहु होइ कम्मं, न केवलं जीव धारण ॥१७६४॥ ___ अर्थ-जो राई आदि सचित्त बीज डाला हुआ भरण (वर्तन) बह अप्रासुक होता है, पर उसके अभाव में प्रासुक भी हो जाता है, वह केवल जीवघात से अग्राह्य नहीं होता, किन्तु आधार्मिक होने के कारण वह छः मास तक अग्राह्य होता है। समणे घर पासंडे. जावंतिय अत्तणोय मुत्तूसं । . . छट्टो नत्थि विकप्पो उस्सि चणमो जयहाए ॥१७६।।