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अर्थ-सौवीरिणी से अमुक प्रमाण में सौवीरान्स छाम कर जुदा लेना इसका नाम उत्चिन है, उत्सवन, श्रमण के लिये १, घर श्रमण के लिये २, घर अन्य दर्शनियों के लिये ३, घर जो श्रये उन सब के लिये ४, और केवल अपने लिये ५, इस प्रकार उत्सिन पाँच प्रकार से होता है, छठा कोई भी विकल्प नहीं है कि जिसके लिये उत्सञ्चन किया जाय। इन पांच प्रकार के उत्सि - ग्रानों में से केवल अपने लिये किये गये उत्सिजन में से जैन श्रमण सौवीर जल ले सकता है। अन्य उत्सिनों में से नहीं ।
पिंग सुहा होती. सौवीरं पिट्ठवज्जियं जाणे ।
टीका - श्रीह्यादिसम्बन्धिना पिष्ट ेन यद् विकटं भवति । ला सुरा, यत्तु पिष्टवर्जितं द्राक्षाखजूरादिद्रव्यैनिष्पद्यते तन्मचं सौवीर विकटं जानीयात् ।
अर्थ - चावल आदि के पिष्ट के सन्धान से जो मादक पानी बनता है उसको सुरा कहते है और द्राक्षा खजूर आदि का संधान कर जो मादक जल बनाया जाता है उसका नाम सौवीर विकट है
ऊपर सुरा और सौवीर विकट के जो लक्षण बताये गये हैं । दोनों श्रमणों के लिये अभक्ष्य हैं और सौवीर जल के भ्रम से सौवीर विकट को लेने वाले श्रमण को प्रायश्चित्त लेने का विधान किया गया है। सामान्य सौवीर जल यव तथा गेहूँ के सन्धान से बनाया जाता था उसने मादकता नहीं, किन्तु अत्यल्प मात्रा में अम्लता उत्पन्न अवश्य होती थी । इस प्रकार का सौवीर