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યુગપ્રધાન જિનચંદ્રસૂરિ
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सूवा सारू मधुरसि लवइ, वचनदंड पंजर दुख सहइ। मगर सहस योजन विस्तार, तंदुल लघुतमि मन व्यापार ॥ १३ ॥ इक इक दंडि महादुख पार, तिहुं सहत तिणि कवण आधार । माया वागुल क्रोध भुजंगु, मानिहि वेसर होइ मतंगु ॥ १४॥ लोभिइ उंदरडो मरि होइ, कर्म आगल नवि छूटइ कोइ। नयन रूपि रंगि रमइ पतंगु, नाद वेधि वेधियउ कुरंगु ॥ १५॥ मीन रसनि परिमल भमरलउ, फरस रसि गज गयवर गलिउ । इक इक लगइ दुख सहइ, जिस तनि पंचइ ते किम सहइ ॥ १६ ॥ (कलश-) इय सुणिय मुणिय विचार निरमल,
आठमद जिउ परीहरइ। तजी राग दोस कसाय इंद्रि, पंच विषय न चित धरइ ॥ धन धन्न खरतर गच्छ सुरतरु, भणइ 'जिणचंद सूरि' । जे पढइ तेहनइ 'आदि जिणवर', मनह वंछित पूरि ॥ १७ ॥
(पत्र १ तत्कालीन लिखित) १२ विक्रमपुर मंडन आदिजिन स्तवन । (राग-धारणि) साचउ इक अरिहंत अकल सरूपी, जिणवर जाणीयइ रे।
___ हरि हर ब्रह्मा देव ते सुहणइ, मनहि न आणीयइ रे ॥ सामी समरथ आज मई, नयणउ निरखीयइ रे।
मन माहरउरे रूडा, जिणगुण गाइवा हरखीयउ रे ॥१॥ आंकणी । रमणि रंग विलास यौवन, धन छइ सहु (य) कारिमउ रे ।
भवभयभंजण धीरश्रीरिसहेसर, मुख सुरतरु समउ रे ॥२॥ मन० तुम्ह दरिसण जगनाह सफल, जमारो जाण्यो मइ माहरऊ रे ।
कामित फल दातार हिव हुं, नाम न छोडूं ताहरऊ रे ॥३॥ मन० । द्यो समकित सामि ! वलि वलि, पय पणमी वीनवउं सहि रे ।
गिरुआ तणउ रे सभाव एहज, प्रारथीया पहिडइ नहीं (रे) ॥४॥ 'विक्रमनयर' शृंगार श्रीआदिसर, निजमन ध्यायइ रे। 'श्रीजिनचंदसूरि' एम पभणइ, वंछित (बहु) फल पायइरे ॥५॥ मन