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________________ और दुःख पहुंचाए, वह हिंसा है।' ईर्ष्या बहुत बड़ी हिंसा है। हिंसा का अर्थ केवल किसी को मारना ही नहीं है। अपितु गहरे अर्थ में परिग्रह भी हिंसा है। लोभ, ईर्ष्या, क्रोध आदि के आवेश में भी व्यक्ति दूसरों के अहित की ठान लेता है। नाना प्रकार के आविष्ट लोग समस्या पैदा करते हैं। कोई भी अनैतिक आचरण या बुराई व्यक्ति स्वतंत्र चेतना से नहीं अविष्ट चेतना से करता है। जब व्यक्ति गोली या बम की भाषा से ही समाधान की बात सोचता है तो अहिंसा की बात समझाना वहुत कठिन है। किसी अनपेक्षित कार्य की प्रतिक्रिया में यदि कहीं उग्र टिप्पणी की जाती है तो वह भी हिंसा है। महाप्रज्ञ के प्रस्तुत मंतव्य के संदर्भ में त्रैकालिक सच्चाई का निदर्शन है। हिंसा के विभिन्न रूप हिंसा की प्रकृति को समझने के लिए उसके विभिन्न रूपों का संज्ञान जरूरी है। हिंसा के तीन प्रकार है। एक हिंसा है आरंभजा हिंसा। खेती आदि के रूप में जो आवश्यक हिंसा की जाती है, वह आरंभजा हिंसा है। सामान्य आदमी उससे वच नहीं सकता। दूसरी हिंसा है प्रतिरोधजा हिंसा। जब कोई आक्रमण करता है तो आदमी को उसका प्रतिरोध करना पड़ता है। सामान्य आदमी उससे भी नहीं बच सकता। पर तीसरी हिंसा है संकल्पजा हिंसा। वह हिंसा निरर्थक है। दूसरे पर आक्रमण करना, किसी को कष्ट देना यह संकल्पजा हिंसा है। इससे सामान्य आदमी भी बच सकता है। यदि संकल्पजा हिंसा से भी बचा जा सके तो भी दुनिया की बहुत सारी समस्याएं समाप्त हो जाती है। 93 इस मंतव्य की पष्टि आचार्य महाप्रज्ञ के इन विचारों से होती है। एक हिंसा वह है जो रोजगार के लिए की जाती हैं मछली या पक्षियों को पकड़कर रोजीरोटी कमाने वाले आदमी के लिए यह छोड़ना कठिन है। उसके लिए यह रोजी-रोटी का प्रश्न है। दूसरी हिंसा है स्वरक्षा के लिए होने वाली हिंसा, उसमें स्वयं की जिन्दगी का प्रश्न होता है। और परे प्रकार की हिंसा है आक्रामक हिंसा। मेरी (महाप्रज्ञ) दष्टि में यह तीसरे प्रकार की हिंसा को रोकना जरूरी है है। मेरा प्रयास है कि आक्रामक हिंसा की विचारधारा लोगों में न हो। लोगों को ऐसा प्रशिक्षण दिया जाए, उनकी संतानों का लालन-पालन इस तरह हो कि उनके मन में आक्रामक भाव का उद्भव ही न हो। यह अहिंसा के प्रस्थान की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। शरीर, वाणी, मन ये तीन हिंसा के साधन हैं। इनमें क्रमशः सूक्ष्मता होती है। इस तथ्य को उपाख्यान की शैली में प्रस्तुति देते हुए महाप्रज्ञ ने कहा-मानसिक हिंसा शेर नहीं करता, आदमी ज्यादा करता है। कहीं विस्फोट करना है, सुरंग बिछाना है, हत्या करनी है यह सब मानसिक हिंसा है। मन प्राणी के विकास की भूमिका है। जिसके पास मन है वह विकसित प्राणी है। पर आज आदमी उसका ठीक उपयोग नहीं कर रहा है। मनुष्य चलते-चलते ही पौधे की टहनी तोड़ देता है, रास्ते में पड़े जीव को कुचल देता है। व्यापार में भी धोखा-धड़ी, प्रवंचना करता है। यह सारी मानसिक हिंसा है। मनुष्य वाचिक हिंसा से अधिक मानसिक हिंसा करता है। फिर वह मानसिक तनाव में चला जाता है। मानसिक हिंसा का सबसे अधिक प्रभाव व्यक्ति के मस्तिष्क पर पड़ता है। फिर दिमाग शून्य बन जाता है। इसलिए मन की हिंसा शरीर की हिंसा से भी ज्यादा खतरनाक है। मन की हिंसा के कारण व्यक्तिगत जीवन व परिवार भी अस्त-व्यस्त बन जाता है। हिंसा का अदृश्य रूप है मानसिक हिंसा। किसी का अनिष्ट सोचना, किसी का बुरा सोचना, आचार्य महाप्रज्ञ का अहिंसा में योगदान / 93
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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