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________________ आचार्य महाप्रज्ञ का अहिंसा में योगदान अहिंसा के सनातन सिद्धांत को मानने, जानने, अपनाने और व्याख्यायित करने वालों की एक संतति है। विभिन्न मतों, पंथों एवं परंपराओं में पोषित मनीषियों ने इसे अपनी समझ और सोच के आइने में जो प्रस्तुति दी वही उस परंपरा अथवा व्यक्ति विशेष का ‘अहिंसा दर्शन' कहलाया। आचार्य महाप्रज्ञ जैन धर्म-तेरापंथ संप्रदाय से जुड़े हुए है। अहिंसा संबंधी विचार जैन मान्यतानुरूप होना स्वाभाविक है। पर, वैशिष्ट्य इस बात का है कि महाप्रज्ञ ने परंपरा को अक्षुण्ण रखते हुए अहिंसा को सामाजिक परिवेश में आधुनिक प्रस्तुति दी। उन्होंने बताया यह केवल परलोक को संवारने की प्रक्रिया नहीं है अपितु वर्तमान जीवन को सुखी और आनंदमय बनाने की कीमियां है। लक्ष्यानुगत मौलिक अहिंसा की स्थापना एवं विकासात्मक प्रक्रिया को प्रस्तुत कर नवीनता प्रदान की है। अहिंसक चेतना जागरण की नई प्रविधि का सूत्रपात कर मानव का शांतिपथ प्रशस्त किया है। आचार्य महाप्रज्ञ ने स्वतंत्र भारतीय परिवेश में अहिंसा को अनेक रूपों में सम-सामयिक प्रस्तुति देकर राष्ट्रोत्थान की विकासमूलक नई संभावनाओं को उजागर किया है। आचार्य महाप्रज्ञ के विराट् अहिंसा दर्शन के अथाह सागर की थाह पाना एक श्रमसाध्य कार्य है। तथापि चंचुपात के रूप में एक प्रयत्न किया गया, जिसकी प्रस्तुति 'आचार्य महाप्रज्ञ का अहिंसा में योगदान' में गुंफित है। हिंसा एक विमर्श अहिंसा प्रतिष्ठा की पृष्ठभूमि में अनुशास्ता ने हिंसा पर पर्याप्त प्रकाश डाला। बगैर उसे जाने अहिंसा की चर्चा अपूर्ण होगी। अतः सर्वप्रथम हिंसा को विमर्श का विषय बनाया गया है। व्यापक रूप से हिंसा का अर्थ प्राण व्यपरोण-प्राण विच्छेद से गम्य किया गया है। इसका सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने बताया-किसी जीव को मारना ही हिंसा नहीं है। एक आदमी भयंकर गुस्सा करता है, वह भी हिंसा है। क्रोध करना भी हिंसा है, अहंकार भी हिंसा है।.......दूसरा कोई न हो फिर भी आदमी अपनी हिंसा तो करता ही है। इसलिए अध्यात्म के आचार्यों ने लिखा-'आया चेव हिंसा'-आत्मा ही हिंसा है। निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा ही हिंसा है। चाहे क्रोध का संवेग हो, चाहे अहंकार की उत्तेजना हो, चाहे लोभ की उत्तेजना हो, चाहे भय की उत्तेजना हो, कोई भी उत्तेजना हो वह दिमाग में है तो हिंसा हो रही है। यह हिंसा का सूक्ष्म आकलन है।। ___ हिंसा की उन्नत परिभाषा है कि 'जो स्वयं के लिए हानिकार हो और दूसरों को भी पीड़ा 92 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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