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________________ भाव हो; और अहिंसक भी वही होता है जो अहिंसा का पालन करे, जिसके मन में अहिंसा का भाव हो। बलात् किसी को हिंसक या अहिंसक नहीं बनाया जा सकता। दया आंतरिक अनुभूति है थोपा हुआ सिद्धांत नहीं। आचार्य भिक्षु ने कहा-'अहिंसा महाव्रत है, दया उसमें समाई हुई है। अहिंसा से अलग दया नहीं है।' अर्थात् मुनि पूर्ण अहिंसा के संवाहक है अतः उनकी दया का क्षेत्र विस्तृत है। मुनि के लिए यहाँ तक उल्लेख है कि सब जीवों की दया के निमित्त मुनि अपने लिये बनाया हुआ भोजन भी न ले। इस प्रकार सूक्ष्म हिंसा से बचने का निर्देश अहिंसा की अखंड आराधना हेतु ही किया गया है। दया के दो रूप हैं-लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक दया का संबंध कर्त्तव्य से है। सामाजिक प्राणी का जो कर्त्तव्य समाज के प्रति है उसे अहिंसा और धर्म की कोटि में नहीं रखा जा सकता वह लौकिक दया की कोटि में आ सकता है। लौकिक दया के साथ अहिंसा की व्याप्ति नहीं है, इसलिए अहिंसा और लौकिक दया भिन्न-भिन्न हैं। लोकोत्तर दया और अहिंसा की निश्चित व्याप्ति है-जहाँ दया है वहाँ अहिंसा है और जहाँ अहिंसा है वहाँ दया है। इस दृष्टि से अहिंसा और दया एक है। लोकोत्तर दया का स्वरूप इस रूप में जान सकते हैं- 'एक व्यक्ति पाप का आचरण कर रहा हो, उसे कोई समझाए, उसका हृदय बदल दे, वह जन्म-मरण के कुएं में गिरने से बचता है। यह दया का आध्यात्मिक स्वरूप है।' अर्थात् अहिंसा की दृष्टि में मारने वाला पाप से बचे, उसकी हिंसा छ्टे, मारने वाला हिंसा के पाप से बच जाए, ऐसी करुणा या दया ही अहिंसा है। लौकिक दया और उपकार के संबंध को प्रकट करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने बताया-जिसमें संयम और असंयम का विचार प्रधान न हो, किंतु करुणा ही प्रधान हो, वह लौकिक दया है। जहां करुणा संयम से अनुप्राणित हो, वह लोकोत्तर दया है। अग्नि में जलते हुए को किसी ने बचाया, कुएं में गिरते हुए को किसी ने उबारा-वह लौकिक उपकार है।102 स्पष्ट रूप से लौकिक दया और उपकार का संबंध है पर लोकोत्तर का संबंध इन दोनों से नहीं है। लोकोत्तर दया का आचरण विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि पर ही केंद्रित है। इसकी पूर्ण आराधना कर मुमुक्षु अपनी मंजिल का वरण कर लेता है। इसका उदाहरण उत्तराध्ययन सूत्र में मिलता है-'सागर चक्रवर्ती सागर पर्यंत भारतवर्ष और पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ अहिंसा की आराधना कर मुक्त हुआ।103 यहां अहिंसा दया के अर्थ में प्रयुक्त हुई है। अहिंसा युक्त दया के अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें प्रमुख है-हाथी के भव में मेघकुमार द्वारा की गई दया, नेमिकुमार का विवाह प्रसंग से प्राणियों पर दया कर वापिस अविवाहित मुड़ जाना, गजसुकुमाल द्वारा अग्निकाय के जीवों पर दयाद्र होकर निष्प्रकंप खड़े रहना आदि। विशुद्ध अहिंसा निष्ठ दया के अनेक उदाहरण भरे हैं। लौकिक दया के भी अनेक उदाहरण मिलते हैं उसमें छद्मस्थ अवस्था में महावीर द्वारा गोशालक की तेजोलेश्या से रक्षा करना भी सम्मिलित है। जिसका प्रसंग सावद्य अनुकंपा से जुड़ा हुआ है। गांधी ने अहिंसा के लिए 'दया' शब्द का प्रयोग यदा-कदा किया है। उनकी दृष्टि में अहिंसा और दया में नितांत भेद नहीं है। 'अहिंसा और दया में उतना ही भेद है जितना सोने में और सोने के गहनों में, बीज में और वृक्ष में। जहां दया नहीं वहां अहिंसा नहीं। अतः यों कह सकते हैं कि जिसमें जितनी दया है उतनी ही अहिंसा है।10 स्पष्ट है कि दयाशून्य अहिंसा और अहिंसा शून्य दया कभी नहीं हो सकती। दोनों का परस्पर आंतरिक संबंध है। आक्रमणकारी का डरकर सामना न करना अहिंसा नहीं है अपितु दया-भाव से ज्ञानपूर्वक न मारने में ही अहिंसा है। 56 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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