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________________ ही ममत्व और शोक के विचार पैदा होते हैं। राग-द्वेष भावनात्मक बंधन हैं। ये बंधन कब टूटते हैं? इसका समाधान अहिंसा दर्शन को ध्वनित करता है। 'हृदय की सब गांठे (भाव बंधन) टूट जाती हैं; मस्तिष्क में सब संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, मनुष्य जिन नाना कर्मों में व्याकुलता से भागा फिरता है वे छूट जाते हैं, जब उसका पर और अपर ओर-छोर दिख जाता है। जिस क्षण रागद्वेष की सूक्ष्म ऊर्मियों का साक्षात्कार व क्षयिकरण हो जायेगा उस दिन समत्व के शिखर पर आरूढ़ चेतना आत्मस्वरूपावस्था को प्राप्त कर, समस्त जन्म-मरण की परंपरा से मुक्त हो जायेगी। समता रूपी अहिंसा की इस सर्वोच्च भूमिका पर ही परमात्म-साक्षात्कार घटित होगा। प्रकृति पर आधारित 'ब्रह्मचक्र' की परिकल्पना उपनिषद् की स्वोपज्ञ सोच है। इसके प्रारूप में अहिंसा तत्त्व भी विद्यमान है। 'ब्रह्मचक्र के पचास आरे हैं-पाँच विपर्यय, अट्ठाईस आशक्तियां, नौ तुष्टि तथा आठ सिद्धियां।' 'तुष्टि' के नौ भेदों में अहिंसा एक है। इससे प्रमाणित होता है कि उपनिषद् भी अहिंसा के विकास में तत्पर रहे हैं। अहिंसा के विविधोन्मुखी स्वरूप का विमर्श उपनिषद् में अंकित हैं। इसका संबंध अपरिग्रह से भी है। परिग्रह की पकड़ जहाँ सघन होती है वहाँ अहिंसा विकसित नहीं हो पाती। अहिंसा के विकास की पृष्ठभूमि में ईशावास्योपनिषत् के आदि श्लोक में त्याग-पूर्वक भोग की प्रेरणा के साथ दूसरे के धन की आकांक्षा न करने की बात कही- 'जगत् प्रवाह-मात्र है, प्रवाह के अतिरिक्त यह कुछ नहीं, यह संपूर्ण प्रवाह पर-ब्रह्म से अनुप्राणित है। पदार्थ का भोग त्याग पूर्वक (अनासक्ति) करें।'52 अर्थात् संग्रह वृत्ति न हो, वस्तु के उपभोग में केवल आवश्यकता पूर्ति का दृष्टिकोण रहे, मूर्छा का भाव, पदार्थ प्रतिबद्धता न हो। ___ अहिंसा का उल्लेख छान्दोग्य उपनिषद् में उपलब्ध है। आत्मज्ञान प्राप्ति के प्रसंग में अहिंसा को इसकी दक्षिणा कहा गया है। ___ अहिंसात्मक भावना के विकास का सूत्र कठोपनिषत् के शांतिपाठ में खोजा जा सकता है। ईर्ष्या-डाह-क्लेश से दूर रहकर पारस्परिक संबंधों को प्रेमपूर्ण बनाये रखने की गुरु-शिष्य आशंसा आदरणीय है। परस्पर में स्नेहसिक्त मंगल कामना का स्वर एक साथ मुखरित हुआ-'दोनों की साथसाथ सब प्रकार से रक्षा करे। साथ-साथ समुचित रूप से पालन-पोषण करें। साथ-साथ सब प्रकार से बल प्राप्त करें। हम दोनों की अध्ययन की हुई विद्या तेजपूर्ण हो। हमारे अंदर परस्पर कभी द्वेष न हो।'3 इसमें अहिंसा की अखंड साधना का स्वर मुखरित है। गुरु-शिष्य का सहप्रार्थना स्वर व्यक्तिवादी, स्वार्थपूर्ण मनोवृत्ति के लिए प्रेरणा-पाथेय है। इस शांतिपाठ का अभिधेय है-सौहार्दपूर्ण पारस्परिक संबंधों का विकास। अहिंसा के बिना ऐसा कदापि संभव नहीं बन सकता। अहिंसा के विकास की उच्च भूमिका पर ही शांतिपाठ के चरितार्थ होने की संकल्पना साकार हो सकती है। वेदों और उपनिषदों के अनेक सूक्त, श्लोक समान भाव-भाषा में अंकित है। उपनिषदों में उल्लेखित अहिंसा संबंधी कतिपय तथ्यों के आधार पर यह जाहिर है कि उपनिषद् अहिंसा विकास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। रामायण में अहिंसा भारतीय संस्कृति का आदर्श दस्तावेज़ श्रीराम चरित् मानस बनाम 'रामायण' महाग्रंथ है। इसके आलोक में श्रद्धा, समर्पण, अनुशासन और त्याग-वैराग्य की शिक्षा मिलती है। तुलसीदासजी की प्रौढ़ रचनाओं अहिंसा का ऐतिहासिक स्वरूप । 39
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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