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________________ पराये का भाव छोड़कर सभी सत्कर्म एक साथ करें। यह सह विकास की भावना अहिंसा के विकासात्मक स्वरूप को प्रकट करती है। वेदों में विहित अनेक सूक्त एवं आख्यान परस्पर सौहार्द भाव विकसित करने की प्रेरणा देते हैं। प्राकृतिक तत्त्वों को अनुकूल प्रवृत्ति के लिए आह्वान करते हैं। चर-अचर देवों की पूजा-अर्चा कर उनसे सहयोग की कामना करते हैं। ये सभी प्राणी जगत् की सुख-शांति हेतु किये गये प्रयत्न सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर अहिंसा भावना से अनुस्यूत प्रतीत होते हैं। जिज्ञासु के लिए वेदों में अहिंसा के विकास सूत्र अन्वेषणीय है। उपनिषद् में अहिंसा उपनिषद् ऋषि-महर्षियों की अनुभव चेतना का ज्ञान कोश है। इसमें अध्यात्म विकास के अनेक बीजमंत्र अंकित हैं। विविध मंत्रों के प्रयोग अहिंसा की साधना को विकसित करने में सक्षम हैं। अहिंसा का सूक्ष्म अर्थबोध इस कथन में खोजा जा सकता है- 'जो समस्त भूतों को आत्मतुल्य समझता है और सभी भूतों में स्वयं को देखता है वह किसी से घृणा नहीं करता।46 यह अहिंसा के विकास का महत्त्वपूर्ण आलंबन सूत्र है। समस्त भूत जगत् को आत्मानुभूति के आलोक में देखने वाला उनके प्रति नैसर्गिक रूप से अहिंसक बन जाता है। जब व्यक्ति एक से राग और दूसरे से द्वेष रखता है तब हिंसा का भाव पैदा होता है। हिंसा के भाव पैदा न हों इस हेतु समानानुभूति का सिद्धांत सशक्त उपाय है। कथन में सूक्ष्म अहिंसा का भाव प्रकट हुआ है क्योंकि यहां मात्र मनुष्य लोक की ही नहीं संपूर्ण जीवलोक की चर्चा की गयी है। जाबालदर्शनोपनिषद् में अहिंसा का ग्रहण 'यम' में किया गया है-'यम के दश भेदों में प्रथम स्थान अहिंसा का है।' अहिंसा को 'यम' में प्रमुख स्थान देने का अर्थ है इसकी उदग्र साधना का स्वीकरण। विशेष रूप से इसी उपनिषद् में श्रेष्ठ बुद्धि को श्रेष्ठ अहिंसा बतलाते हुए कहा-'हे मुने! यह भाव रखना चाहिए कि आत्म तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है, शस्त्र आदि के द्वारा वह नष्ट नहीं हो सकता। हाथों या अन्य इन्द्रियों के द्वारा भी आत्मा का ग्रहण होना असंभव ही है। अतः इस तरह से जो श्रेष्ठ बुद्धि है, उसे ही वेदांत के मर्मज्ञ विद्वानों ने श्रेष्ठ अहिंसा कहा है। इसमें आत्मा की सर्वव्यापकता एवं अमरता का बोध करवाने वाली बुद्धि को श्रेष्ठ अहिंसा कहा है। नारद परिव्राजकोपनिषद् में 'परिव्राजकों (संन्यासियों) के लिए श्रेष्ठ धर्म के रूप में अहिंसा को स्वीकारा है।'48 अहिंसा अपने आप में श्रेष्ठ है फिर चाहे उसका आसेवन कोई भी क्यों न करे। इसे अनेक संदर्भो में प्रस्तुति मिली-'नियमों के अंतर्गत अहिंसा प्रधान है।' त्रय गुणों की चर्चा में सत्त्वगुण श्रेष्ठता का प्रतीक है। सात्विक गुणों के संचार में अहिंसा की भूमिका को स्वीकार किया गया-'अहिंसा को सत्तोभाववृद्धि के रूप में अंगीकार किया गया है।' वेदों में दया का जो स्वरूप बतलाया गया है उसे अहिंसा का ही विकासात्मक रूप कह सकते हैं-'समस्त भूतप्राणियों को अपनी ही भांति जानकर उनके प्रति मन, वचन एवं शरीर द्वारा आत्मीयता का अनुभव करना (अर्थात् अपनी ही तरह उनके दुःखों को दूर करने तथा अधिक से अधिक सुख पहुंचाने का प्रयास करना) ही वेदवेत्ता विद्वज्जनों के द्वारा ‘दया' बताई गयी है।'+9 दया अहिंसा का ही पर्याय है। प्राणीमात्र में एकत्व का अनुभव करने वाले का चैतसिक भाव भिन्न होता है,-'जो सभी भूतों को आत्मवत् जानता है उसे कैसा मोह, कैसा शोक?' भेद बुद्धि के चलते, अपने-पराये भाव के कारण 38 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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