________________
1
करना असम्भव हो और है भी । फिर भी मुझको इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि सत्य यही है और इसलिए भलाई इस बात में है कि हम अपने जीवन को अपनी पूरी शक्ति भर उसके अनुकूल बनावें ।
तथ्य की पुष्टि में उन्होंने कहा - सब समय, सब जगह, सम्पूर्ण अहिंसा संभव नहीं, यों कहकर अहिंसा को एक ओर रख देना हिंसा है, मोह है और अज्ञान है। सच्चा पुरुषार्थ तो इसमें है कि हमारा आचरण सदा अहिंसा के अनुसार हो। इस तरह आचरण करने वाला मनुष्य अन्त में परम पद प्राप्त करेगा, क्योंकि वह सम्पूर्णतया अहिंसा का पालन करने योग्य बनेगा। उन्होंने यह स्वीकारा कि जगत् यानी देहमात्र हिंसामय है और इससे अहिंसा - प्राप्ति के लिए देह के आत्यंतिक मोक्ष की तीव्र इच्छा पैदा हुई । जाहिर है उनके भीतर मोक्ष पाने की चाह कितनी प्रबल बनी। गांधी के शब्दों में - जीवन एक अभिलाषा है । उसका ध्येय पूर्णता अर्थात् आत्म साक्षात्कार के लिए प्रयत्न करना है ।
मोक्ष की प्राप्ति में पुरुषार्थ की भूमिका स्वीकार की - 'कर्म को मैं अवश्य मानता हूँ किन्तु पुरुषार्थ को भी मानता हूँ। कर्म का सर्वथा क्षय करके मोक्ष प्राप्त करना परम पुरुषार्थ है ।"2" देहमुक्ति और परमानंद के संबंध को प्रकट किया- मैं अपने को अहिंसामय मानता हूँ । अहिंसा और सत्य मेरे दो प्राण हैं । अहिंसा की महान शक्ति और मनुष्य की पामरता को क्षण-क्षण में अधिकाधिक स्पष्टता से देखता हूँ। यह देह तो हिंसा का स्थान है इसीलिए सर्वथा देह- मुक्ति में ही मोक्ष और परमानन्द रहता है। इसी से मोक्ष के आनन्द को छोड़ कर और सभी आनन्द अस्थिर हैं, सदोष हैं । 1 22 स्पष्टतया गांधी ने मोक्ष के परमानन्द को समझा और अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य उसकी प्राप्ति का बनाया ।
महाप्रज्ञ बचपन से ही मोक्ष प्राप्ति को जीवन का सर्वोच्च ध्येय मानकर सतत् प्रयत्नशील बने । उनका स्पष्ट अभिमत था जब तक जीव की मुक्ति नहीं होती तब तक दुःखों की अन्तहीन परंपरा चालू रहती है। जन्म-मरण की श्रृंखला का उच्छेद मुक्ति के वरण से होता है । मुक्तावस्था पूर्व भूमिका है - वीतराग । साधना की उच्च भूमिका पर चेतना सभी मलों से मुक्त होकर वीतराग बन जाती है। वीतराग का अर्थ है- 'पर' से हटकर अपने आपमें प्रतिष्ठित होना । इस अवस्था में 'पर' का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है । यही बड़ी उपलब्धि है। 23
अहिंसा की साधना जब सिद्धि में बदल जाती है, मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। मोक्ष का अपर नाम है निर्वाण । निर्वाण को सुगम शब्दों में प्रस्तुति दी - निर्वाण का अर्थ है स्वतंत्र अस्तित्व का वरण । व्यक्ति अपने उस स्वतंत्र अस्तित्व में अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति और अनंत आनन्द का अनुभव करता है । परमात्मा होने का अर्थ स्वतंत्र सत्ता का होना है, स्वयं ईश्वर बन जाना है। ईश्वर में विलीन होना नहीं है। निर्वाण का ऐसा सिद्धांत भगवान महावीर के सिवाय किसी भी निर्वाणवादी दार्शनिक ने नहीं दिया। निर्वाण बुझ जाने का सूत्र नहीं अस्तित्व के मिट जाने का नाम नहीं । निर्वाण में विलीन होने का प्रश्न नहीं है। निर्वाण है अपने समग्र अस्तित्व को अभिव्यक्त कर लेना, आत्मा को परमात्मा बना लेना । 12" यह मोक्षावस्था के स्वरूप का चित्रण है । निश्चित रूप से यह अवस्था अहिंसा की सर्वोच्च भूमिका की निष्पत्ति है ।
निर्वाण के स्वरूप को स्पष्ट शब्दों में बताया। निर्वाण का एक अर्थ है-किसी भी बाधा का न होना । कर्मबद्ध अवस्था में प्रत्येक आदमी बाधा का जीवन जीता है। बाधाओं, विघ्नों को पार कर जाना, उन्हें जीत लेना निर्वाण है। निर्वाण का मतलब है अबाध हो जाना ।
अभेद तुला : एक विमर्श / 397