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________________ प्रत्येक प्राणी के प्रति आत्मानुभूति की स्थिति में ही अहिंसा घटित होती है। प्राणीमात्र के प्रति जब तक समान अनुभूति नहीं जागती तब तक समभाव भी मटित नहीं होता और बिना समभाव के अहिंसा मात्र आदर्श रहती है जीवन का व्यवहार नहीं बन पाती। इस संदर्भ में अहिंसा के सूक्ष्म रूप का उल्लेख किया-'अहिंसा के माने सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर मनुष्य तक सभी जीवों के प्रति समभाव।' अपने आशय को स्पष्ट किया किसान जो अनिवार्य जीव-नाश करता है, उसे मैंने कभी अहिंसा में गिनाया ही नहीं। यह वध अनिवार्य होकर क्षम्य भले ही गिना जाय, किन्तु अहिंसा तो निश्चय ही नहीं है। अहिंसा के सूक्ष्म अर्थ को प्रस्तुत किया-'अहिंसा का अर्थ किसी के शरीर को प्रत्यक्ष हानि न पहुँचाना ही नहीं है। युक्ति-अयुक्ति, असत्य-प्रपंच, छल-कपट संक्षेप में कहा जाय तो सभी अस्वच्छ और कुटिल मार्गों की गणना हिंसा में है। जिसने एक बार अहिंसा को धर्मभाव से अथवा नीति के रूप में स्वीकार कर लिया, उसके लिए इन तमाम मलिन मार्गों का त्याग आवश्यक है। उन्होंने यह भी कहा-अहिंसा का साधक केवल प्राणियों को उद्वेग पहुँचाने वाली वाणी न बोलकर और कर्म न करके अथवा मन में भी उनके प्रति द्वेषभाव न आने देकर संतोष नहीं मानता; बल्कि वह जगत् में फैले हुए दुःखों को देखने-समझने और उनके उपाय ढूँढ़ने का प्रयत्न करता रहेगा और दूसरों के सुख के लिए स्वयं प्रसन्नतापूर्वक कष्ट सहेगा। अर्थात् अहिंसा केवल निवृत्ति-रूप कर्म या अक्रिया नहीं है, बल्कि बलवान प्रवृत्ति या प्रक्रिया है।02 अहिंसा और अहिंसक को अभेद दृष्टि से देखा जाये तो अनुभव होगा कि अहिंसा का अर्थ कितना गूढ़ एवं विराट है। अहिंसा की सूक्ष्मता के विकास की संभावना को आंकते हुए लिखा-आज हम ऐसी बहुत सी बातें करते हैं, जिन्हें हम हिंसा नहीं मानते हैं, लेकिन शायद उन्हें हमारे बाद की पीढ़ियां हिंसा के रूप में समझे। जैसे हम दूध पीते हैं या अनाज पकाकर खाते हैं, उसमें जीव हिंसा तो है ही यह बिल्कुल संभव है कि आने वाली पीढ़ी इस हिंसा को त्याज्य समझ कर दूध पीना और अनाज पकाना बन्द कर दे। आज यह हिंसा करते हुए भी हमें यह दावा करने में संकोच नहीं होता कि हम अहिंसा धर्म का पालन करते हैं। यह अहिंसा की सूक्ष्मता का चित्रण है। अहिंसा की सूक्ष्मता सहसा प्राप्त नहीं होती उसका भी क्रमिक भाव है। विकास क्रम का चित्रण गांधी ने किया। हिंसा त्याग की क्रमिक भूमिकायें होती हैं। देश, काल, विवेक और शक्ति के अनुसार व्यक्ति अहिंसा की ओर आगे बढ़ता है। यदि अनिवार्य हिंसा को अहिंसा धर्म मानने की धारणा बन जाय, उस स्थिति में आगे बढ़ने की आशा नहीं की जा सकती। क्रमिक विकास का मार्ग स्पष्ट करते हुए गांधी ने लिखा खेती इत्यादि आवश्यक कर्म शरीर व्यापार की तरह अनिवार्य हिंसा है। उसका हिंसापन चला नहीं जाता है और मनुष्य ज्ञान, भक्ति आदि के द्वारा अन्त में अनिवार्य दोषों से मोक्ष प्राप्त कर, इस हिंसा से भी मुक्त हो जाता है।103 परिलक्षित है कि अहिंसा की सूक्ष्मता को उन्होंने गहराई से पकड़ा। केवल पकड़ा ही नहीं उसे अपने जीवन के व्यवहार में स्थान दिया। उनकी प्रस्तुति थी-जान बूझकर मैं किसी भी प्राणी को दुःख नहीं पहुंचा सकता, मनुष्यों को तो दुःख पहुँचाने की बात ही नहीं, भले ही वह मेरा या मेरे स्वजनों का कितना ही अहित कर दें। अतः जहाँ मैं ब्रिटिश राज को अभिशाप समझता हूँ, वहाँ मैं एक भी अंग्रेज या भारत में उसके किसी भी उचित स्वार्थ को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता। प्रकट रूप से न केवल सूक्ष्म अहिंसा के स्वरूप को ही व्याख्यायित किया अपितु जीवन के व्यवहार पक्ष में भी उतारा। इसीलिए उनकी अहिंसा प्राणवान बनी। अभेद तुला : एक विमर्श / 389
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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