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________________ में आत्म का अद्वैत प्रतिपादित है। जिसको तू मारना चाहता है, वह तेरे से भिन्न नहीं है। क्या तू उसकी घात करता हुआ स्वयं की घात नहीं कर रहा है? इस अद्वैत की अनुभूति से हिंसा से सहज विरति हो जाती है। जहाँ द्वैत की या पर की अनुभूति होती है, वहां हनन आदि का प्रसंग आता है। इसलिए यहाँ आत्मा के अद्वैत स्वरूप का उपदेश दिया गया है। प्रकट रूप से आचारांग अद्वैत के निर्वचन का ग्रंथ है। इसमें केवल इतना ही नहीं बताया गया-किसी जीव को मत मारो, किंतु यह निर्देश भी दिया गया कि प्रत्येक प्राणी के साथ अद्वैत स्थापित करो। प्रत्येक प्राणी के साथ अद्वैत की अनुभूति अहिंसा का महान् प्रयोग है। जब तक यह अनुभूति जागृत नहीं होती तब तक कोई पूर्ण अहिंसक बन नहीं सकता। जब तक प्रत्येक प्राणी के साथ एकात्मकता की अनुभूति नहीं जागती तब तक हिंसा का संस्कार टूटता नहीं है। अद्वैतानुभूति के स्तर पर हिंसा-विरति का भाव पुष्ट बनता है। इस कथन को स्थापित करने वाली वीतराग वाणी 'सब आत्माएं समान हैं'-यह जानकर पुरुष समूचे जीवलोक की हिंसा से उपरत हो जाए। इस सूत्रात्मक कथन को भाष्यकार ने गहराई में निमज्जन करके व्याख्यायित किया। 'लोक' का अर्थ है-जीव समूह । 'सभी प्राणियों की आत्मा समान है' यह जानकर मुनि हिंसा से उपरत हो जाता है। जिन-जिन हेतुओं से जीवों का वध होता है, वे सारे हेतु शस्त्र कहलाते हैं । अहिंसक और अपरिग्रही व्यक्ति सभी शस्त्रों से उपरत होता है। यहां अहिंसा के संदर्भ में समता का अर्थ है-आत्मतुला, सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझना और अपरिग्रह के संदर्भ में समता का अर्थ है-लाभ, अलाभ आदि द्वंद्वों में समभाव रखना।" हिंसा विरत मुनि का महत्त्वपूर्ण विशेषण दण्ड-भीरु (हिंसाभीरु) भी मिलता है। जिसका स्पष्ट आशय है कि कर्म-समारंम्भ का विवेक कर मुनि सर्व हिंसा से उपरत बनें। प्रश्नव्याकरण सूत्र में हिंसा-अहिंसा की जो प्रस्तुति विस्तृत रूप से हुई वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। अहिंसा की सूक्ष्मता में जानने हेतु हिंसा के विषय में प्रकाश डाला गया- ‘प्राणवध रूप हिंसा के विविध आयामों के प्रतिपादक गुणवाचक यथा-प्राणवध, अविश्वास, हिंस्य-विहिंसा, अकृत्य, घात, मारण, वधना, उपद्रव, अतिपातना.....गुणों की विराधना इत्यादि तीस नाम हिंसा के हैं। इस वर्णन में हिंसा का सूक्ष्म स्वरूप ज्ञातव्य है। अधिकांशतया हिंसा को मात्र प्राणवध की दृष्टि से ही देखा जाता हैं। स्थूल दृष्टि वालों के लिए इसका अतिसूक्ष्म रूप-अविश्वास, अकृत्य, उपद्रव भी हिंसा है, वास्तव में मननीय है। हिंसा के सक्ष्म उल्लेख के साथ अहिंसा को अधिक विस्तार पूर्वक प्रस्तति दी। पंच संवर द्वार में प्रथम अहिंसा है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में अहिंसा के साठ नामों का उल्लेख है।* गुणनिष्पन्न साठ नामों के अतिरिक्त अन्य नाम भी हैं। जिन्हें चार श्रेणियों में रख सकते हैं:. मुमुक्षु के सात्विक भावों की परिचायक, यथा-निर्माण, निवृत्ति, समाधि, तृप्ति, क्षान्ति, बोद्धि, धृति, विशुद्धि आदि। . संपूर्ण प्राणी जगत् के प्रति दया-करुणा से भावित, परपीड़ा जनक कार्य से दूर, यतनाचार समिति की कोटि में गृहित, यथा-दया, रक्षा, समिति, अमाघात आदि। . अहिंसा की पवित्रता के प्रकाशक ये नाम-कीर्ति, क्रान्ति, रति, चोक्षा, पवित्रा, शुचि, पूता आदि। * परिशिष्ट : । अहिंसा का ऐतिहासिक स्वरूप | 35
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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