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________________ इतना अंतर और इतना वैषम्य है, उसे पाटने का सामर्थ्य है । मैं मानता हूँ वह समाज व्यवस्था, वह राज्य व्यवस्था, वह अर्थव्यवस्था और वह धर्मव्यवस्था भी अच्छी नहीं होती, जो व्यक्तियों के तनाव को दूर न कर सके। आज की सबसे बड़ी बीमारी है तनाव । यह बीमारी दूसरी तमाम बीमारियों की जन्मदात्री है ।" यह उनका मात्र वाचिक अभ्युपगम ही नहीं है । इसके उपचार स्वरूप विभिन्न प्रायोगिक पक्षों को अध्यात्म के धरातल पर उजागर किया है । अहिंसा की प्रस्थापना में एक महत्त्वपूर्ण आयाम है-सुविधावादी दृष्टिकोण बदले। हम प्रदूषण से चिन्तित हैं, त्रस्त हैं । सुविधावादी दृष्टिकोण प्रदूषण पैदा कर रहा है, उस पर हमारा ध्यान ही नहीं जा रहा है। 'मैं जानता हूँ-समाज सुविधा को छोड़ नहीं सकता किन्तु वह असीम न हो - यह विवेक आवश्यक है। यदि सुविधाओं का विस्तार निरन्तर जारी रहा तो अहिंसा का स्वप्न यथार्थ में परिणत नहीं होगा ।' समाज व्यापी विषमताओं का चित्रांकन किया- आज अनैतिकता बहुत है, भ्रष्टाचार बहुत है, अपराध, हिंसा बहुत है, आतंक और उपद्रव बहुत है । यह सारा क्यों है ?.....मूर्च्छा (मोह) के कारण है। मोह का घना अंधकार है । जब ज्ञान का पूर्ण प्रकाश होता है फिर पूर्ण मोह का विलय होता है । जब तक मोह का अंधकार है व्यक्ति सच्चाई को पकड़ नहीं पाता। इस मूर्च्छा के विलयन में वे प्रेक्षाध्यान के अभ्यास को महत्त्वपूर्ण बतलाते । वह इसलिए जरूरी है कि जो धारा हमारे भावों को उत्तेजना देती है, उन्हें मलिन बनाती है, मन में अशान्ति पैदा करती है, युद्ध और आतंक पैदा करती है, उस धारा को कमजोर बनाना है। उस धारा को प्रबल बनाना है, जिसमें शान्ति और अहिंसा है, सामंजस्य और समन्वय है, मैत्री और सह अस्तित्व है ।" भावधारा के परिवर्तन से समाज में अहिंसा प्रतिष्ठा का उपक्रम समस्या के स्थायी समाधान का द्योतक है। उन्होंने व्यक्ति परिवर्तन पूर्वक समाज में अहिंसा प्रतिष्ठा की दृष्टि से सैकड़ों प्रेक्षाध्यान शिविर समायोजित किये, जिसके सकारात्मक परिणाम आये हैं । प्रेक्षाध्यान शिविरों के पॉजिटिव परिणामों का राज है स्वयं महाप्रज्ञ द्वारा संभागियों के लिए अमूल्य समय का नियोजन । प्रति शिविरार्थी की चेतना को छूने का, झंकृत करने का उपक्रम अपने आपमें मौलिक था । संभागी के हृदय में आचार्य महाप्रज्ञ के सौम्य व्यवहार की अपूर्व छवि अंकित होती। इस संदर्भ के उदाहरणों में से एक का उद्धरण प्रासंगिक होगा। अंतर्राष्ट्रीय प्रेक्षाध्यान शिविर अहमदाबाद में, श्री पी. के. त्रिवेदी (पूर्व आई. ए. एस) उपस्थित हुए उनके अनुभव के बोल हैं - 'यहाँ आने से पहले मैं आशंकित था कि जैन बनाने की बात होगी या अपने धर्म के महत्त्व को बढ़ावा होगा। पर, यहाँ तो जीवन जीने के बारे में व प्रायोगिक विधि से स्वयं आचार्य प्रवर प्रयोग करवातें हैं। ये तो बड़ी विशेष बात है, इतने बड़े आचार्य प्रवर सरल भाव से सभी से पूछते हैं, मिलते हैं कितनी बड़ी बात है।" ऐसा अनुभव अनेक व्यक्तियों का 1 महाप्रज्ञ ने केवल आध्यात्मिक जीवन ही नहीं अपनाया अपितु धर्म के क्षेत्र में पलने वाले पाखंड का भी खंडन किया। धर्म को यथार्थ के धरातल पर सामयिक प्रस्तुति दी। उनकी दृष्टि में धर्म के तीन रूप हैं - नैतिकता, उपासना और अध्यात्म । तीनों का खंडित रूप धर्म की अपूर्णता है । स्वयं को धार्मिक कहने वालों से उनका आह्वावान था - धर्म के क्षेत्र में चलने वाली रूढ़ धारणाओं, मान्यताओं से परे होना होगा। रूढ़िवादों का संकलन किया जाए तो धर्म का स्थान पहला हो सकता है । इसलिए धार्मिक जगत् में रहने वालों को चिन्तन करना होगा कि केवल मान्यता के आधार पर ही धर्म के तत्त्व का प्रतिपादन न करें। प्रत्यक्षानुभूति के मार्ग को भी प्रशस्त करें । भेद दृष्टि के आधारभूत मानक / 355
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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