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________________ बाहर फेंक देती हैं। एक नहीं, अनेक ऐसे वृक्ष हैं, जो बलप्रयोग करते हैं। वे अन्य जीवों को चूसते हैं, उनका शोषण करते हैं । इसी तरह चींटियां सामुदायिक व्यवस्था का पालन करती हैं। चींटियों की रानी सारी व्यवस्था का संचालन करती है । जो चीटियां काम करने से जी चुराती हैं, आलसी हो जाती हैं, उन्हें समाज से बाहर निकाल दिया जाता है। मधुमक्खियों की भी यही व्यवस्था है । रानी मधुमक्खी काम न करने वाली मधुमक्खी को दण्ड देती है, उनका बहिष्कार करती है और दण्डस्वरूप उनसे अधिक काम कराती है। समूचे प्राणीजगत् में दण्ड की और बलप्रयोग की व्यवस्था चलती है । मनुष्य ने दंडशक्ति के स्थान पर आत्मानुशासन का विकास भी किया। उसकी धारणा यह रही कि बलप्रयोग कम हो, दण्डशक्ति का प्रयोग कम हो, पर आत्मानुशासन जागे । '3 स्पष्टरूपेण आत्मानुशासन का विकास ही हृदय-परिवर्तन का मूल मंत्र है। संदर्भ को स्पष्ट करते हुए महाप्रज्ञ ने कहा- विश्व में दो शक्तियां हैं - बल प्रयोग की शक्ति और हृदय परिवर्तन की शक्ति । हृदय परिवर्तन अहिंसा का प्राण । हृदय का अर्थ पंपिंग करने वाला हृदय नहीं है। प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में जिसे हृदय माना जाता है, वह मस्तिष्क का एक हिस्सा हाइपोथेलेमश है । हमारे जो इमोशंस हैं, भाव हैं, उनका उत्पत्ति स्थल है लिम्बिक सिस्टम और उसका एक भाग हाइपोथेलेम है ।" ऐतिहासिक संदर्भ में हृदय परिवर्तन की बात अनेक संदर्भों में उल्लिखित है यथा तथागत की शरण में अंगुलीमाल, महावीर के सन्मुख अर्जुनमाली जैसे हत्यारे, क्रूरकर्मी बदल गये यानी उनकी दूषित भावनाएँ बदल गयी जिसे हम हृदय परिवर्तन की संज्ञा देते हैं । आचार्य महाप्रज्ञ प्रेक्षाध्यान को भावना परिष्कार का प्रयोग कहते हैं जो एक प्रकार से हृदय परिवर्तन का प्रयोग है । हमारी भावनाएँ किस प्रकार परिष्कृत हों ? क्रोध, अहंकार, लोभ, घृणा, भय, ईर्ष्या, कामवासना - ये कैसे आनुपातिक बन सकें, संतुलित बन सकें, इनकी उच्छृंखलता कैसे कम हो ? इन्हें नियंत्रित करने में ध्यान की महनीय भूमिका बनती है। 15 प्रेक्षाध्यान को भले ही सामाजिक अहिंसा के साथ न जोड़ें किन्तु परोक्षतः सामाजिक शांति स्थापन में इसकी सक्रिय भूमिका रहती है । महाप्रज्ञ कहते—मेरी अहिंसा मारो या मत मारों पर आधारित नहीं है । अहिंसा को हमने बहुत व्यापक रूप में लिया है। हिंसा का भाव कैसे और कहाँ से पैदा होता है, इस पर पूरी रिसर्च की है । खोज या अनुसंधान का वह क्रम अब भी जारी है। प्रेक्षाध्यान का अभ्यास इसीलिए जरूरी है कि जो धारा हमारे भावों को उत्तेजना देती हैं, उन्हें मलिन बनाती है, मन में अशांति पैदा करती है, युद्ध और आतंक पैदा करती है, उस धारा को कमजोर बनाना है। उस धारा को प्रबल बनाना है, जिसमें शांति और सह-अस्तित्व है। लड़ाई, संघर्ष, हिंसा, और युद्ध पहले हमारे भावजगत् में पैदा होता है । वह बाह्यजगत् में मात्र अभिव्यक्त होता है। इस विश्लेषण के साथ उनका दृढ़ विश्वास था कि ध्यान के द्वारा वृत्तियों का परिवर्तन होता है, मस्तिष्क का नियमन होता है। इससे नाड़ी - संस्थान और ग्रन्थि- संस्थान पर नियंत्रण होता है । वैज्ञानिक प्रविधि प्रयोग और परीक्षण को प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में प्रयुक्त कर स्वभाव परिवर्तन की दिशा में सफलता हासिल की है । यह साबित हुआ कि अंतःस्त्रावी ग्रंथियों के स्त्राव ही आदमी के स्वभाव का निर्धारण करते हैं । ये स्त्राव ही किसी को अध्यात्म की ओर तो किसी को हिंसा और आतंक की ओर अग्रसर करते हैं। हम इस सिद्धांत को मानकर चलते हैं कि व्यक्ति में जैसा न्यूरोट्रांसमीटर बनता है, वैसे ही उसका व्यवहार होता है।" ध्यान के विभिन्न प्रयोगों से भीतर के सारे रसायन I 328 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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