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________________ ___4. विरोधी हिंसा-अपने तथा अपने परिवार, धर्मायतन, समाज देशादि पर किये गये आक्रमण से रक्षा के लिए अनिच्छापूर्वक की गई हिंसा। इस चतुःरूप में हिंसा के समग्र संदर्भो का संस्पर्श है। हिंसा की विभिन्न परिभाषाएँ, व्याख्याएं, प्रकार अहिंसा के सूक्ष्म अन्वेषण की पृष्ठभूमि में महत्त्वपूर्ण हैं। आधार भित्ति अहिंसा के थाह को पाने हेतु इसकी आधार भित्ति का अन्वेषण अत्यन्त अपेक्षित है। अहिंसा मात्र काल्पनिक है अथवा इसे ठोस धरातल भी प्राप्त है? इस जिज्ञासा के संदर्भ में एक नूतन आलोक अनुभूति के स्तर पर खोजा जा सकता है। विराट् स्वरूपा अहिंसा का प्रणयन किसने किया? इसका सटीक समाधान प्रश्न व्याकरण सूत्र में किया गया है-'यह भगवती अहिंसा वह है जो अपरिमितअनन्त केवल ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले, शीलरूपगुण, विनय, तप और संयम के नायक तीर्थ की स्थापना करने वाले, जगत् के समस्त जीवों के प्रति वात्सल्य धारण करने वाले, त्रिलोक पूजित जिनवरों द्वारा अपने केवल ज्ञान-दर्शन द्वारा सम्यक् रूप में स्वरूप, कारण और कार्य के दृष्टिकोण से निश्चित की एवं उसका आचरण किया। प्रकट रूप से जिन्होंने अहिंसा का प्रतिपादन किया उन तीर्थंकरों ने स्वयं आचरण भी किया। आचरणशून्य आलेख (उपदेश) अरण्य प्रलापवत् निष्फल होता है। आचरणात्मक पक्ष से परिपुष्ट अहिंसा का उल्लेख–'मैं कहता हूँ-जो अर्हत् अतीत में हुए हैं; वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे-वे सब अहिंसा का उग्र निरूपण करते हैं, किया है एवं करेंगे। इससे यह स्पष्ट है कि अहिंसा एक ऐसा आलोकिक तत्त्व है जिसका सभी अर्हत समान रूप से प्रवचन और आचरण करते हैं। एतद् विषयक अहिंसा की त्रैकालिकता और विज्ञता का निदर्शन कराने वाला हृदयग्राही तथ्य आचारांग सूत्र में उपलब्ध है-'यह अहिंसा धर्म जो कहा जा रहा है, वह दृष्ट, श्रुत, मत और विज्ञात है।" इसका संवादी सूत्र भी इसी में है-'यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। आत्मज्ञ अर्हतों ने लोक (जीव-समूह) को जानकर इसका प्रतिपादन किया। आचार्य महाप्रज्ञ ने आचारांग भाष्य में लिखा-'जो धर्म आत्मज्ञ व्यक्तियों द्वारा प्ररूपित होता है वह तात्त्विक रूप से एक होता है। जो तात्त्विक रूप से एक नहीं होता वह आत्मज्ञ व्यक्तियों द्वारा प्ररूपित नहीं होता।13 यथार्थतः अहिंसामृत वीतराग चेतना से उद्भूत तत्त्व चिंतामणी है जिसका दिव्यालोक हर स्थिति में प्रकाशमान रहता है। अहिंसा का एक और आधारभूत स्तम्भ है-जिजीविषा। ‘जीवन की आशंसा जैसे मुझमें है वैसे ही दूसरों में है। सब प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है--इस सत्य को देखकर भय और वैर से उपरत पुरुष प्राणियों के प्राणों का घात न करें। इस संदर्भ में तीन महत्त्वपूर्ण तथ्य उजागर होते हैं 1. सभी जीवों में अपने-अपने जीवन की प्रियता होती है। 2. भय हिंसा का कारण है। 3. हिंसा से वैर की परंपरा वृद्धिंगत होती है। जीवन की प्रियता सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान है फिर चाहे वह किसी भी स्थिति में क्यों न हो? इस आशय को महत्त्व देते हुए निर्ग्रन्थ के लिए विशेषरूप से दसवेंआलियम् सूत्र में विधान किया गया-'सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसलिए निर्ग्रन्थ प्राणीवध का वर्जन करते हैं।' प्राणी जगत् की आशंसा के संरक्षण का यह महत्त्वपूर्ण विधान है जिसे निर्ग्रन्थ जीवनपर्यंत व्रत स्वरूप धारण करता है। आचारांग सूत्र में जैविक आशंसा को अधिक स्पष्टता एवं 30 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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