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________________ अहिंसा का ऐतिहासिक स्वरूप अहिंसा उत्स : एक दृष्टि भारतीय संस्कृति का प्राण तत्त्व है-अहिंसा। बगैर इसके जैविक अस्तित्व की परिकल्पना धुंधलीसी प्रतीत होती है। मानव संस्कृति का जो विकस्वर स्वरूप आज हम देख रहे हैं उसकी पृष्ठभूमि में अहिंसा का सत्त्व निहित है। जीव जगत् की जिजीविषा एवं दुःखमुक्त परमावस्था की अभिप्सा से अनुस्यूत अहिंसा की अमीय स्रोतस्विनी कालचक्र के नाना अवरोह-आरोह के बावजूद अनादिकाल से गतिमान है। इतिहास के क्षितिज पर इसके उन्मेष-निमेष का अन्वेषण जिज्ञासु के लिए रहस्यमय है। मानव अस्तित्व से जुड़े संप्रत्यय का आदि बिंदु पाना अपने आप में जटिल पहेली है। अहिंसा की भावना कब और क्यों उत्पन्न हुई ? अहिंसा शब्द का प्रयोग कब से होने लगा? ये महत्त्वपूर्ण अन्वेषणीय प्रश्न हैं। इनका सही-सही इतिहास जानना कठिन है। प्राक् ऐतिहासिक काल की ओर दष्टिपात करने पर 'अहिंसा' जैसे शब्द का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। इससे संबंधित कुछ जानकारी साहित्य और कल्पना के आधार पर मिलती है। यौगलिक युग के आरंभ काल में 'अहिंसा' शब्द की उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठा। वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम मूर्धाभिषिक्त राजा ऋषभ ने सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्थाओं का सूत्रपात किया उसमें भी अहिंसा का कोई रूप सामने नहीं आया। कर्मयुग के प्रवर्तनांतर भगवान् ऋषभ आत्म साधना के पथ पर चल पड़े। साधना का प्रारंभ 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि-आज से मैं सर्व सपाप प्रवृत्तियों को त्यागता हं। इस भावना के साथ किया। इसका आधार जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में मिलता है।" उन्होंने जो साधना का पक्ष स्वीकार किया, वह अहिंसामय था। ऋषभ देव ने सर्व प्राणातिपात का विरमण किया। यहीं से अहिंसा का स्रोत बहा। उपदेश लब्ध धर्म का प्रवर्तन हुआ। संभव है प्राथमिक तौर पर अहिंसा के लिए प्राणातिपात विरति (प्राण वध का त्याग) शब्द प्रयोग में आया और अहिंसा का उसके बाद में। कल्पना की दृष्टि से भी यह संगत लगता है। सर्वप्रथम जब दूसरों को न मारने की भावना उत्पन्न हुई, तब उसकी अभिव्यक्ति के लिए 'प्राणातिपात विरति' शब्द ही पर्याप्त था। पश्चात्-प्राणातिपात की भावना विकसित होते-होते चतुरूप बन गई 1-2 पर-प्राणवध जैसे पाप है, वैसे स्व-प्राणवध भी पाप है। 3-4 पर के आत्मगुण का विनाश करना जैसे पाप है, वैसे अपने आत्म-गुण का विनाश करना भी पाप है। 'प्राणातिपात विरमण' के विस्तृत अर्थ को संक्षेप में रखने की आवश्यकता के साथ ही यह अनुभव में आया कि प्राण-वध के बिना भी प्रवृत्तियां सदोष देखी जाती है। अतः एक ऐसे शब्द 28 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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