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है तो चालू अवधारणाओं में मौलिक बदलाव करना ही होगा। क्योंकि जहाँ केन्द्रीकरण का संग्रहण है वहाँ हिंसा को फलने-फूलने का अवकाश रहता है और अनेक अमानवीय तत्वों को पलने का मौका मिलता है। ठीक इसके विपरीत विकेन्द्रीकरण के द्वारा आर्थिक समानता-समतापूर्ण आदर्श व्यवस्था का सूत्रपात सुगम और सुलभ हो जाता है।
ग्राम स्वराज्य
ग्राम स्वराज्य को वे शोषण-विहीन समानता-युक्त समाज की रचना का आधार मानते थे। आजाद भारत का स्वराज्य एवं ग्राम कैसा हो, का चित्रण करते हुए लिखा-ग्राम स्वराज्य की मेरी कल्पना यह है कि वह ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा जो अहम जरूरतों के लिए अपने पड़ोसियों पर भी निर्भर नहीं रहेगा, हालांकि बहुत-सी दूसरी जरूरतों के लिए-जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा-वह परस्पर सहयोग से काम लेगा। हरेक गाँव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपड़े के लिए कपास खुद पैदा कर ले। उसके पास इतनी अतिरिक्त सुरक्षित जमीन भी होना चाहिये जिसमें ढोर चर सकें और गांव के बड़ों व बच्चों के मन-बहलाव के साधन और खेल-कूद के मैदान का वंदोवस्त हो सके। इसके बाद जमीन बचे तो वह उसमें ऐसी उपयोगी फसलें बोयेगा जिन्हें बेचकर वह आर्थिक लाभ उठा सके, लेकिन गांजा, तंबाकू, अफीम वगैरह हानिकारक चीजों की खेती से वह बचेगा।” स्पष्ट तौर पर ग्राम स्वराज्य की कल्पना समाज के प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-निर्भर बनाने की उदात्त भावना से संपृक्त थी। यद्यपि वे इस बात को भी मानते थे कि समाज में पलने वाले प्रत्येक व्यक्ति की योग्यताएं समान नहीं होती फिर भी समान अवसर तो सभी को उपलब्ध कराये ही जा सकते हैं।
गांधी ने कहा समाज की मेरी कल्पना यह है कि हम सब समान पैदा हुए हैं, अर्थात् हमें समान अवसर प्राप्त करने का हक है। हाँ, सबकी योग्यता एक-सी नहीं है। यह कुदरती तौर पर असंभव है। चूंकि बुद्धिशाली लोग अधिक कमायेंगे और इस काम के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग करेंगे। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति का हक सभी को मिले ताकि सभी सुगमता से अपना जीवन-यापन कर सके। साथ ही अहिंसा के द्वारा आर्थिक समानता कैसे लाई जा सकती है इसका समाधान खोजा गया।
जिसने अहिंसा के आदर्श को अपनाया हो वह अपने जीवन में आवश्यक परिवर्तन करे। हिन्दुस्तान की गरीब प्रजा के साथ अपनी तुलना करके अपनी आवश्यकतायें कम करे। अपनी धन कमाने की शक्ति को नियंत्रण में रखे। जो धन कमाये उसे ईमानदारी से कमाने का निश्चय करें। गांधी का स्पष्ट अभिमत था-यदि अहिंसा को व्यापक क्षेत्र में घटित करना हो, तो सबसे पहले जीविकोपार्जन की विधि अहिंसा को चरितार्थ करने से आरम्भ करनी होगी। मैं अपने लिए जिस ढंग से अन्न जुटाता हूँ उसमें अगर अहिंसा नहीं है, तो आगे फिर मेरे उपलक्ष में अहिंसा की सफलता किस प्रकार हो सकती है। अहिंसा की साधना का इस बिन्दु से हम आरम्भ करें तभी अहिंसा की और हमारी सच्ची परीक्षा है। उसमें स्पष्ट है कि हमको प्रचलित अर्थ-शास्त्र और समाज शास्त्र से प्रकाश प्राप्त नहीं होगा। बना-बनाया कोई दर्शन या विज्ञान हमारा हाथ नहीं थामेगा। उसकी बुनियाद ही जो दूसरी ठहरी। इससे हमकों अपनी श्रद्धा और श्रम से एक नये ही अर्थ-शास्त्र की नींव डालने और नयी अहिंसक समाज रचना के लिए तैयार हो जाना होगा।100 उनके हृदय में संपूर्ण समाज व्यवस्था को
228 / अँधेरे में उजाला