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________________ मनवाने का मेरा प्रयत्न और प्रयोग है। यह नयी चीज है इसलिए इसे झूठ समझकर फेंक देने की बात इस युग में तो कोई नहीं कहेगा। यह कठिन है, इसलिए अशक्य है, यह भी इस युग में कोई नहीं कहेगा। क्योंकि बहुत-सी चीजें अपनी आँखों के सामने नई-पुरानी होती हमने देखी है। मेरी यह मान्यता है कि अहिंसा के क्षेत्र में इससे बहुत ज्यादा साहस शक्य है, और विविध धर्मों के इतिहास इस बात के प्रमाणों से भरे पड़े हैं। समाज में से धर्म को निकाल कर फेंक देने का प्रयत्न बांझ के घर पुत्र पैदा करने जितना ही निष्फल है; और अगर कहीं सफल हो जाये तो समाज का उसमें नाश है।2 स्पष्ट आशय है कि अहिंसा के आधार पर ही समाज के संगठनात्मक स्वरूप की कल्पना की जा सकती है अन्यथा समाज नहीं ‘समज' जो पशुओं के समूह का द्योतक है, ही कहलाता। प्रश्न है कि अहिंसा का प्रयोग कब प्रारम्भ हुआ? गांधी का अभिमत है 'सारा समाज अहिंसा पर उसी प्रकार कायम है जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण से पृथ्वी अपनी स्थिति में बनी हुई है। लेकिन जब गुरुत्वाकर्षण के नियम का पता चला, तो इस शोध के ऐसे परिणाम निकले, जिनके बारे में हमारे पूर्वजों को कुछ ज्ञान न था। इसी प्रकार जब निश्चित रूप से अहिंसा के नियमानुसार समाज का निर्माण होगा, तो खास-खास बातों में उसका ढ़ांचा आज से भिन्न होगा।' उनका अभिमत था समाज संरचना की पृष्ठभूमि में अहिंसा का सत्व विद्यमान है। सब सुसंगठित समाजों की रचना अहिंसा के आधार पर हुई है। मैंने देखा है कि जीवन विघात के बीच रहता है और इसीलिए विघात से बढ़कर कोई नियम होना चाहिये। केवल उसी नियम के अन्तर्गत एक सुव्यवस्थित समाज समझा जा सकता है और उसी में जीवन का आनन्द है और यदि जीवन का यही नियम है तो हमें दैनिक जीवन में बरतना चाहिये। ___ गांधी के समाज संबंधी विचार को व्यापक बनाने वाला चिंतन आचार्य महाप्रज्ञ का अहिंसक समाज के संदर्भ में देखा जाता है। पहले मनुष्य जंगल में रहता था, गुफा में रहता था। वृक्ष की छाल को ओढ़ता था अथवा नग्न ही रहता था। फिर मनुष्य ने विकास किया, समाज बनाया और बस्ती बनाकर रहने लगा। समाज का निर्माण अहिंसा के आधार पर हुआ है। जंगली या हिंसक जानवरों का समाज नहीं होता। वे एक दूसरे को खा जाते हैं। यदि मनुष्य हिंसक जानवरों की भाँति एक दूसरे को खाने को दौड़ते तो समाज का निर्माण ही नहीं होता। एक दूसरे के हितों में बाधा न डालने का समझोता सामाजिक जीवन का सुदृढ़ स्तम्भ है। समाज अहिंसा व प्रेम के आधार पर ही बनता है। एक दूसरे की मर्यादा समझने पर समाज बनता है। हिंसक मनुष्य कभी अपना समाज नहीं बना सकता। समाज के मूल में अहिंसा की प्रेरणा रही है। एक साथ जीना, अहिंसा की प्रेरणा के बिना संभव नहीं हो सकता। समाज बना अहिंसा के आधार पर है। उसका सूत्र है-साथ-साथ रहो, तुम भी रहो और मैं भी रहूँ। या तुम, या मैं-यह हिंसा का विकल्प है।.....जहाँ अहिंसा का प्रयोग होगा, वहाँ भाषा बदल जायेगी. स्वर बदल जायेगा। व्यक्ति कहेगा-तम भी रहो. मैं भी रहँ. हम दोनों साथ रह सकते हैं, कोई बाधा नहीं है। अनेकांत में इस सूत्र का बहुत विकास हुआ है, जिसे सहावस्थान कहा जाता है। अगर अहिंसा की भावना न हो तो दो व्यक्ति साथ नहीं रह सकते। वे साथ में तभी रह सकते हैं जब मन में अहिंसा की भावना हो और आपस में समझौता हो कि तुम मुझे हानि नहीं पहुँचाओगे, में तुम्हें हानि नहीं पहुँचाऊँगा। समुदाय बनाने का अथवा समाज बनाने का मूल सेतु अहिंसा है। आज हमने अहिंसा को बहुत भुला दिया। कोई किसी को कष्ट न पहुँचाए, सब अपने-अपने अधिकार 222 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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