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________________ अभय और अहिंसा व्यक्ति अहिंसा का सच्चे अर्थों में तभी उपासक बन सकता है जब वह अभय बनें। भयभीत-कायर व्यक्ति अहिंसा जैसे शक्ति-शाली मंत्र का लाभ नहीं उठा सकता। गांधी के शब्दों में.....अहिंसा मंत्र का अर्थ है निडरता का मन्त्र-अभय का मंत्र। अभय बने बिना अहिंसा का पालन अपूर्ण है। अहिंसा की दूसरी संज्ञा क्षमा की परिसीमा है किन्तु क्षमा तो वीर पुरुष का भूषण है। अभय के बिना अहिंसा नहीं हो सकती। अहिंसा में भय का कोई स्थान ही नहीं है। भयमुक्त होने के लिए अहिंसा के उपासक को उच्च कोटि की त्यागवृत्ति विकसित करनी चाहिए। जिसने सब प्रकार के भय को नहीं जीता, वह पूर्ण अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। इसलिए अहिंसा का पुजारी एक ईश्वर का ही भय रखे, दूसरे सब भयों को जीत ले।। ईश्वर से भय का आशय है केवल पापकर्म, बुरे कार्य से ही भय रखें जिसके सहारे दूसरे भय स्वयमेव समाप्त हो जायेंगे। किसी भी स्थिति में कायर या भयभीत होने वाला अहिंसा जैसे महान् मूल्य को नहीं पा सकता। अहिंसा की पूर्ण परिपालना में अस्त्र-शस्त्र की जरूरत भी नहीं है। गांधी कहते हैं- अहिंसा और कायरता कभी एक साथ नहीं चल सकते। शस्त्र रखने में कायरता नहीं तो भय का भूत अवश्य छिपा है। किन्तु विशुद्ध निर्भीकता के बिना सच्ची अहिंसा असम्भव है।' सच्ची अहिंसा के अभ्यासी को अभय होना जरूरी है। अहिंसा और अभय के संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ का चिंतन गांधी के विचारों का संपोषक है। उन्होंने माना कि अहिंसा के विकास की पहली सीढ़ी है-अभय। अहिंसा महाव्रत है तो अभय उसकी भावना है। अभय के बिना अहिंसा की कोई बात सोची नहीं जा सकती। 'अहिंसा व्रत का आदि बिन्दु है तो अभय उसकी साधना का अभिन्न अंग है।' इस कथन की पुष्टि में महावीर को उद्धृत किया है। महावीर ने कहा, 'डरो मत।' जब तक डरते हो, तब तक किसी भी धर्म का पालन नहीं हो सकता। न अहिंसा का पालन हो सकता है. न सत्य का पालन हो सकता है और न अपरिग्रह का पालन हो सकता है। आदमी हिंसा इसीलिए करता है कि वह डरता है। वह झूठ इसीलिए बोलता है कि वह डरता है और परिग्रह इसीलिए एकत्रित करता है कि वह डरता है। उसे भय है कि बूढ़ा हो जाऊंगा तो क्या होगा? बीमार हो जाऊंगा तो क्या होगा? यह भय ही परिग्रह का मूल है। इसलिए महावीर ने कहा, 'डरो मत। तनाव को मिटाने का सबसे अच्छा सूत्र है-अभय, भय नहीं रखना। अहिंसा की साधना का पहला सोपान है-अभय। यह एक बड़ी साधना है। अभय होना यानि चिंतामुक्त होना। सुख से जीने का मूलमंत्र है-अभय होना। आवश्यक है आदमी अभय बनें। अभय निष्पति के संबंध में महाप्रज्ञ ने कहा-जब सहिष्णुता सधती है तब अभय घटित होता है। धर्म का रहस्य है-अभय। धर्म की यात्रा का आदि बिन्दु है-अभय और अन्तिम बिन्दु है-अभय। धर्म का अथ और इति अभय है। धर्म अभय से प्रारंभ होता है और अभय को निष्पन्न कर कृत्कृत्य हो जाता है। वीतरागता का आरम्भ अभय से होता है और वीतरागता की पूर्णता भी अभय में होती है। अहिंसा की सर्वोच्च निष्पत्ति-वीतरागता अभय से ही निष्पन्न होती है। अहिंसा के विकास में निर्भयता का अनन्य योग है। निर्भयता अहिंसा का प्राण है। भय से कायरता आती है। कायरता से मानसिक कमजोरी और उससे हिंसा की वृत्ति बढ़ती है। अहिंसा के मार्ग में सिर्फ अंधेरे का डर ही बाधक नहीं बनता; मौत का डर, कष्ट का डर, अनिष्ट का डर, अलाभ अहिंसा की मूल इकाई : व्यक्ति । 195
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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