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________________ प्रस्तुत रचना महाप्रज्ञ की प्रज्ञा से निसृत मानवता के नाम अनुपम उपहार है। जिसमें नये मानव के निर्माण-सूत्र अंकित हैं। ऐसी अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियाँ गुरु इंगित पर महाप्रज्ञ द्वारा निष्पन्न हुई। आचार्य महाप्रज्ञ का बहुआयामी व्यक्तित्व गुरुदेव श्री तुलसी की प्रेरणा-प्रोत्साहन, अनुशासन, कृपा दृष्टि का प्रसाद कहा जा सकता है। इसकी पुष्टि महाप्रज्ञ के कथन 'मैंने जो कुछ भी प्राप्त किया है, उसका श्रेय पूज्य गुरुदेव को है' से होती है। उनका मानना था कि मेरे निर्माता ने मेरी प्रत्येक क्रिया को कुशलता और मौलिकता की कसौटी पर कसा फिर चाहे संदर्भ साहित्य सृजन का हो या प्रवचन शैली परिवर्तन का, प्रेक्षाध्यान की गहन अनुभूति में निमज्जन का हो या जीवन-विज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग-परीक्षण का। अपने निर्माता के प्रति अटूट आस्था, अखंड समर्पण, अविकल श्रद्धा महाप्रज्ञ की विरल विशेषता रही है। किसी के योग से अपने जीवन का निर्माण करना एक बात है और उनके प्रति सदैव समर्पित रहना सर्वथा भिन्न बात है। पर, महाप्रज्ञ विद्यागुरु-व्यक्तित्व निर्माता आचार्य तुलसी के प्रति सदैव-सर्वात्मना प्रणत रहे हैं। सचमुच आध्यात्मिक गहराई, बौद्धिक दिव्यता, स्थितप्रज्ञता, असीम करुणा, मानवीय मूल्यों के संरक्षण की तड़फ, विश्व शांति के प्रयत्न रूप जो महाप्रज्ञ में विशिष्ट गुण विकसित हुए। यह गुरु तुलसी का अलौकिक प्रतिबिम्ब कहा जा सकता है। कथन में अत्योक्ति नहीं होगी कि गुरुदेव श्री तुलसी के कालजयी कर्तृत्व की सर्वोच्च उपलब्धि बना-आचार्य महाप्रज्ञ का विराट् जीवन-दर्शन। आस्था का अभिराम : भिक्षु-दर्शन आचार्य भिक्षु के अध्यात्मपदीय उच्च आदर्शों में महाप्रज्ञ को आत्म-साधना का सौभाग्य मिला। इस महापथ की बदौलत ही आध्यात्मिक दिव्य गुणों का संचार शतगुणित हुआ। आचार्य भिक्षु का धर्म दर्शन (तेरापंथ धर्म संघ) महाप्रज्ञ की श्रद्धा एवं सफलता का पर्याय बना। महाप्रज्ञ में समदृष्टि, करुणा, अभय, गतिशील अहिंसा, सत्य के प्रतिपादन की तार्किक क्षमता आदि गुणों का समवाय भिक्षु-दर्शन की आस्था से उपजा सच था। आस्था की कसौटी पर भिक्षु-दर्शन महाप्रज्ञ के लिए 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानं' की अनुभूति का निदर्शन बन गया। तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्रणेता आचार्य भिक्षु के प्रति महाप्रज्ञ की अटूट श्रद्धा कब पैदा हुई? कह पाना कठिन है। पर इस संदर्भ में महाप्रज्ञ का मन्तव्य 'मैं बचपन से ही भिक्षु स्वामी के प्रति ज्यादा श्रद्धाशील रहा हूं।' इसे स्पष्ट करते हुए बताया-'इसका श्रेय माता बालूजी को है। मैंने सबसे पहले आचार्य भिक्षु को अपनी माँ से समझा। मैं छोटा था, सोया रहता। माँ जल्दी उठकर भिक्षु का स्मरण करती। वह गाती ‘मंत्राक्षर सम नाम तुम्हारे,.......संत भीखणजी रो स्मरण कीजे।' मेरे कानों में ये शब्द पड़ते। संस्कार जमते गए। भिक्षु के प्रति मेरे अव्यक्त मन में एक श्रद्धा उत्पन्न हुई। मैं दीक्षित हुआ अपनी माँ के साथ। आठ-दस वर्ष तक मुझे आचार्य भिक्षु के बारे में समझने-सोचने का अवसर ही नहीं मिला। सहसा आचार्य तुलसी की विचारधारा ने मोड़ लिया, सोचा-तेरापंथ के संबंध में भ्रामक प्रचार, सन्देह पैदा किया जा रहा है, उनका निवारण अपेक्षित है। अन्यथा हमारे विकास में बाधाएँ आती रहेगी। आचार्य श्री ने नए प्रकार से, आधुनिक संदर्भो में आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों की व्याख्या प्रस्तुत की। उस समय तक मैं बहुत नहीं जानता था। मैंने आचार्यश्री द्वारा प्रस्तुत तों को पकड़ना प्रारम्भ किया। वि.सं0 2001 से 2008 तक यह सिलसिला चलता रहा। 'जैन सिद्धान्त दीपिका' की रचना हुई और मैं उन तर्कों की गहराई में उतरने का प्रयत्न करता रहा। सृजनात्मक कड़ियाँ बनाम आस्था / 171
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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