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________________ प्रस्फुटन हुआ और एक दिन सभी सहपाठी साथियों में मुनि 'नथमल' अव्वल घोषित हो गये। अनुशासन एक कला है। उसका शिल्पी यह जानता है कि कब कहा जाए और कब सहा जाए? सर्वत्र कहा ही जाए तो धागा टूट जाता है और सर्वत्र सहा ही जाए तो वह हाथ से छूट जाता है। बौद्धिक विकास के लिए एक संतुलित वातावरण चाहिए। अध्ययन काल में मुनि तुलसी का समुचित अनुशासन पाकर विद्यार्थी साधु गति से प्रगति की ओर बढ़ते। कोमलता और कठोरता के समन्वित प्रयोग से महाप्रज्ञ के भीतर छिपी शक्तियाँ प्रकट हुई। जब कभी मुनि 'नथमल' अध्ययन के प्रति बे-परवाह बनते, प्रमाद करते तब-तब उन्हें कई प्रकार से अनुशाससित करने के प्रयोग अपनाये जाते। उनमें आधा घंटा खड़े रहने का दंड भी सम्मिलित था जो बाल मुनि के लिए असह्य-सा था। इससे अनेक प्रकार के विकल्प उठते। पर जीवन निर्माता के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से अनुशासन कभी भार नहीं लगा बल्कि उपहार सिद्ध हुआ। कालांतर में महाप्रज्ञ ने अपने अनुभव को बताया-शब्दों के उच्चारण काल में हम हंस पड़ते। तब हमारा पाठ बंद हो जाता। किशोरावस्था की कुछ जटिल आदतों को यदि मनोवैज्ञानिक ढंग से न सम्हाला जाता तो शायद हम बहुत नहीं पढ़ पाते। इस कथन में सच्चाई का स्वीकरण है। जो बहत कम लोग कर पाते हैं। महाप्रज्ञ ने सहृदय भाव विभोर होकर बतलाया- मैं यह सौभाग्य मानता हूँ कि हमारे प्रति शिक्षक का अन्यून वात्सल्य था और उनके प्रति हमारी अविकल भक्ति। कौन कृतज्ञ व्यक्ति भूल जाएगा कि महामुनि तुलसी अपने अमूल्य समय और आवश्यक कार्यकलापों की उपेक्षा कर हमारी शिक्षा के लिए अत्यधिक प्रयत्नशील रहते थे। हार्दिक भावना ही इसका कारण है; अन्यथा उन्हें क्या था? न कोई वेतन मिलता था और न कोई स्वार्थ सधता था।' परन्तु महान् व्यक्तियों की संपदा परोपकार के लिए होती है, मानो यह कृतार्थ हो गयी। तुलसी जैसे निरूपमेय निर्माता का योग किसी भाग्यशाली को ही मिल पाता है। वास्तव में दूसरों के लिए तपना-खपना कठिन होता है। पर जिसने अपने साधनामय जीवन को मानवता की सेवा में समर्पित किया है, वही अपने से अन्य का निर्माण कर सकता है। इसके लिए समर्पित जिज्ञासु मुनि 'नथमल' जैसे सुपात्र का मिलना सोने में सुहागे का योग है। निर्मेय का नर्माता के प्रति अहोधन्यता का भाव अनेक प्रसंगों पर मखरित हआ। आचार्य महाप्रज्ञ यदा-कदा कहते- 'मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे एक ऐसा निर्माता मिला, जो व्यक्ति की सुप्त शक्ति को जगाना जानता है। हर व्यक्ति में शक्ति होती है। शक्ति होना एक बात और शक्ति को जगाने वाला देवता मिलना दूसरी बात है।' यह स्पष्ट है कि उपादान ने स्वयं को गौण और निमित्त को बहुत महत्त्वपूर्ण स्वीकारा है। पर निश्चय दृष्टि से देखा जाये तो शक्ति जागरण में जहाँ निमित्त का महत्त्व है वहाँ उपादान की भूमिका भी कम नहीं है। अनेक बार उपादान के अभाव में निमित्त ना कुछ साबित होता है। आत्मानुशासित साधक के लिए अनुशासन का प्रश्न जटिल नहीं तो आसान भी नहीं होता। अनुशासन के नाजुक धागे पर चलना स्वभाव नहीं संकल्प एवं साधना गम्य होता है। फिर इसे हृदय से स्वीकार करना आसान नहीं, बड़ा कठिन होता है। इस कठिनाई का यदा-कदा अनुभव मुनि ‘नथमल' ने भी किया। अपने इस अनुभव को प्रस्तुति महाप्रज्ञ ने तब दी जब आचार्य तुलसी ने कहा-'तुम बहुत कोमल हो।' इस कथन के संदर्भ में महाप्रज्ञ ने कहा-'मेरा रहन-सहन, शिक्षा-दीक्षा मुनि तुलसी के पास हुई। उनके अनुशासन में रहना कोई सरल बात नहीं थी। वे बड़े कठोर अनुशासक हैं।. परिवर्तन एवं नव निर्माण | 165
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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