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________________ महाप्रज्ञ द्वारा निर्दिष्ट घटना का संबंध चैतसिक निर्मलता और दिव्यता से है । इसे तर्क की तुला पर नहीं तौला जा सकता। यह स्पष्ट स्मृत्यांकित सच्चाई थी जो स्वयं दृष्टा के लिए भी रहस्यमय रही है। एतद् विषयक अभिव्यक्ति यदा-कदा महाप्रज्ञ करते भी - 'मुझे याद है कि मेरा जन्म घर के पिछले भाग में हुआ था। मैं जब ढ़ाई मास का था तब मेरे पिताजी दिवंगत हो गये थे, यह भी मुझे याद है ये दोनों घटनाएँ मेरी स्मृति में क्यों हैं, इसकी में तर्क संगत व्याख्या नहीं दे सकता । 19 कुछ शाश्वत तथ्य बिना व्याख्या विश्लेषण के भी प्रतिष्ठित होते हैं । यह प्राकृतिक सच्चाई भी है। जब अविकसित प्राणी-पेड़-पौधे, पशु-पक्षी घटने वाली घटना को अवचेतन मन में संजो सकते हैं तो विकसित संज्ञी चेतना क्यों नहीं? यह बहुत संभव है कि बालक 'नथमल' की पवित्र चेतना में प्रारंभ से ही घटने वाली घटनाओं के चित्र अंकित होते रहें और अवचेतन मन की भूमिका पर ऊतर गये । कुछ भी हो ऐसी घटनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण आज भी रहस्य बना हुआ है I बाल्यावस्था में घटने वाली बालक 'नथमल' के जीवन की अनेक घटनाएँ उसके प्रबुद्ध विवेक को प्रमाणित करती है। संदर्भतः एक घटना का उल्लेख उचित होगा । घटना चक्र के समय बालक की उम्र नौ वर्ष की थी। प्रसंग था- चचेरी बहिन की शादी में शामिल होने 'मेमनसिंह' (वर्तमान बंगलादेश का कस्बा) में, माता और चाचा के साथ जाते वक्त कोलकाता ठहरने का । नथमल पारिवारिकजन सह कोलकाता में अपनी बुआ के यहाँ रुका हुआ था । चाचा और उनकी दुकान के कर्मचारी बाजार सामान खरीदने गये तब बालक 'नथमल' उनके साथ हो गया। वे दुकानों में सामान खरीदते रहे, बच्चा नये परिवेश को निहारता रहा । सहसा बालक रास्ते में कहीं दृश्य देखता रह गया। अभिभावक आगे बढ़ गये; एक-दूसरे का साथ छूट गया । एकाकी बालक के मन में न कोई भय न चिंता न शोक । दृढ़ मनोभाव से एक ऐसा निर्णय लिया जिसकी कल्पना बड़े व्यक्ति भी बिछुड़न की स्थित में नहीं कर सकते। उन क्षणों में निर्णायक मनःस्थिति का उल्लेख स्वयं महाप्रज्ञ के शब्दों में- मैं अकेला रह गया । मुझे नहीं पता कि मुझे कहाँ जाना है। न कोठी का पता और न उसके नंबर का पता । पर, पता नहीं मेरी अन्तश्चेतना को इन सबका कैसे पता चला ! मुझे जब यह लगा कि मैं अकेले रह गया हूँ तब मैंने सबसे पहले एक काम किया- मैंने अपने हाथ की घड़ी खोली, गले में से स्वर्णसूत्र को निकाला और दोनों को जेब में रख लिया। मैं पीछे मुड़ा और अज्ञात की ओर चल पड़ा। मुझे नहीं पता, कहाँ जाना है, कहाँ जा रहा हूँ । पर अन्तश्चेतना को कोई पता था, मैं ठीक स्थान पर पहुँच गया। 5° यह घटनाचक्र बालक की विकसित मानसिकता का द्योतक है। कोलकाता जैसे महानगर में परिजनों से बिछुड़कर भी बिना घबराये, अभ्रमित सीधे निर्धारित स्थान पर सकुशल लौट आना बालक 'नथमल' की जागृत प्रज्ञा का चमत्कार था। जो बाल जगत् के लिए एक बोध पाठ बन गया । पुण्यश्लोका माँ बालू 'जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' - जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से बड़ी है । कथन के पूर्वांश को सत्यापित करने वाली माता बालू विशेषताओं का संवाय थी । 'धर्म की गहरी श्रद्धा, संयम के प्रति जागरूकता, पाप भीरुता, धर्म संघ प्रति समर्पण, दूरदर्शिता की सघन ज्योति का नाम है साध्वी बालू । समता, सहिष्णुता, वैराग्य सह उनकी आध्यात्मिक आस्था बेजोड़ थी ।' ऐसी रत्नकुक्षि माता ने 'नथमल' के रूप में नई आस्था को जन्म दिया। माता केवल जन्म प्रदात्री नहीं संस्कार 156 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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