SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ईश्वर की कृपा मानना यदि वहम हो, तो वह वहम भी बनाये रखने जैसा है। सारी मानव जाति पर अपनी कृपा सदा बनाये रखने की प्रार्थना ईश्वर से करते। ईश्वरीय कल्पना विकासात्मक थी। उसका एक पहलू व्रतमय ईश्वर भी है। गांधी की दृष्टि में ईश्वर खुद निश्चय की, व्रत की संपूर्ण मूर्ति है। उसके कायदे में से एक अणु, एक जरा भी हटे तो वह ईश्वर न रह जाय। सूरज बड़ा व्रतधारी है, इसलिए जगत् का काल तैयार होता है और शुद्ध पंचांग (जंत्री) बनाये जा सकते हैं। सूर्य ने ऐसी साख जमाई है कि वह हमेशा उगा है और हमेशा उगता रहेगा और इसीलिए हम अपने को सलामत मानते हैं। तमाम व्यापार का आधार एक टेक पर रहता है। व्यापारी एक-दूसरे से बंधे हुए न रहें तो व्यापार चले ही नहीं। यों व्रत सर्वव्यापक सब जगह फैली हुई चीज दिखाई देता है। तब फिर जहाँ अपना जीवन गढ़ने का सवाल हो, ईश्वर के दर्शन करने का प्रश्न हो, वहाँ व्रत के बगैर कैसे चल सकता है। इसलिए व्रत की जरूरत के बारे में हमारे दिल में कभी शक पैदा ही नहीं होना चाहिये। प्रकट रूप से ईश्वर के साक्षात्कार हेतु उन्होंने व्रत के महत्त्व को स्वीकारा। अगर ईश्वर में भरोसा रखते हैं और उससे डरते हैं तो फिर हमें किसी से डरने की जरूरत नहीं-न राज-महाराजाओं से न वायसरायों से, और न बादशाह पंचम जॉर्ज से ही। स्पष्टतया गांधी की आस्था का सर्वोच्च केंद्र बिंदु ईश्वर बना। मार्गदर्शिका गीता हिंदू धर्म (वैष्णव पंथ) के संस्कार गांधी को पारिवारिक-परिवेश में मिलें, पर उनका स्थायित्व समझपूर्वक हुआ। इसका श्रेय श्रीमद्भगवत् गीता को जाता है। गीता हिन्दू धर्म का आदरास्पद ग्रंथ है। इसकी शाश्वत प्रेरणा गांधी-जीवन की पथदर्शिका थी। उन्हीं के शब्दों में-मेरे लिए तो गीता आचारण की एक अचूक मार्गदर्शिका बन गयी है। उसे मेरा धार्मिक कोष ही कहना चाहिए। अपरिचित अंग्रेजी शब्दों के हिज्जे या अर्थ देखने के लिए जिस तरह मैं अंग्रेजी कोश खोलता, उसी तरह आचार-संबंधी कठिनाइयों और उसकी अटपटी गुत्थियों को गीता के द्वारा सुलझाता। यह था गांधी का गीता के प्रति आदरास्पद भाव।। 20 वर्ष की उम्र में, 1889 को गीता से गांधी का प्रथम परिचय हुआ। विलायत में रहते लगभग एक वर्ष हुआ। इस बीच दो थियॉसॉफिस्ट मित्रों से पहचान हुई। दोनों सगे भाई थे और अविवाहित थे। उन्होंने गांधी से गीता की चर्चा की। उनके साथ गीता अध्ययन प्रारंभ हुआ। गीता विषयक उस समय की अपनी सोच का चित्रण करते हुए लिखा 'मझे लगा यह कोई ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं हैं, परंन्तु भौतिक युद्ध के बहाने इसमें उस द्वन्द्व का वर्णन किया गया है, जो मानव-जाति के हृदय में सतत होता रहता है और भौतिक युद्ध केवल इसीलिए खड़ा किया गया है कि भीतरी द्वन्द्व का वर्णन अधिक आकर्षक हो जाय।23 इस तार्किक सोच से ऊपर उठकर गीता के रहस्य को पाने की कोशिश हुई। और दूसरे ही अध्याय में भौतिक युद्ध के नियम सिखाने के बजाय स्थितप्रज्ञ के लक्षण देखकर उनके हृदय में नया ऊहापोह खड़ा हुआ। और बहुत जल्दी ही विचारों का प्रवाह भक्तिश्रद्धा के अनुरूप गीता को समझने के लिए क्षमतावान् बन गया। गहन गुत्थियाँ सुलझने लगी। भक्ति के बिना ज्ञान व्यर्थ है। इसलिए गीता कहती है, भक्ति होगी तो ज्ञान अपने आप आ जाएगा। यह भक्ति शाब्दिक पूजामात्र नहीं है, यह तो 'सिरका सौदा' है। इसीलिए गीताकार ने भक्त के लक्षण स्थितप्रज्ञ जैसे ही बतलाये हैं। सांस्कृतिक मूल्य / 137
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy