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सांस्कृतिक मूल्य
हिंदू धर्म आस्था प्रधान धर्म है। इसके अनुयायी किसी-न-किसी इष्ट के प्रति समर्पित होते हैं। यह समपंण ही उनकी साधना एवं सफलता का राज होता है। ईश्वरीय-आस्था हिन्दू धर्म में पलने के कारण गांधी की आस्था का केन्द्र-बिंदु ईश्वर था। अपने इष्ट के प्रति उनके दिल में गहरी निष्ठा थी। इसी से उनमें तितिक्षा का अद्भुत विकास हुआ। अपनी आस्था के सहारे उन्होंने शारीरिक कष्ट, सामाजिक तिरस्कार एवं राजनैतिक विद्रोह सब कुछ सहज भाव से सहन किया। उनकी दृष्टि में ईश्वर स्वयं में परिपूर्ण तथा निर्द्वन्द्व अध्यात्मिक सत्ता है। ईश्वर के विषय में उनका मानना था 'ईश्वर तो गुण-दोष से परे है, उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह तो औचित्य है, अप्रमेय है। ऐसे ईश्वर के बारे में जीती जागती श्रद्धा होने का अर्थ है मनुष्यमात्र को अपना बंधु मानना। इसका अर्थ यह भी है कि सब धर्म-मजहबों के विषय में एक-सा आदर भाव रखना।' वास्तव में गांधी का मानव-प्रेम, सर्वधर्म-समभाव इसी से संचालित था। उनका यह दावा था कि ईश्वर किसी तिजोरी में बंद नहीं है कि उसके पास केवल एक छोटे से छेद के जरिए ही पहुँचा जा सके। यदि हृदय पवित्र और मन अहंकार से शून्य है तो उसके पास पहुँचने के अरबों रास्ते खुले हुए हैं।
अहिंसा के विकास में ईश्वर की अनन्य भूमिका का जिक्र किया-अहिंसा की तालीम में पहली जरूरी चीज तो ईश्वर के बारे में जीती जागती श्रद्धा है। जिसमें ईश्वर विषयक पक्की श्रद्धा होगी वह जबान से ईश्वर का नाम लेते हुए कभी बुरा नहीं करेगा। वह तो तलवार नहीं, बल्कि एक ईश्वर पर अपना आधार रखेगा।....कायरता ईश्वर विषयक आस्तिकता का चिह्न नहीं। ईश्वर पर जो सच्ची आस्था रखता है उसमें तलवार को काम में लाने की ताकत होती है, पर वह उसे काम में लाता नहीं. क्योंकि वह जानता है कि हर एक आदमी ईश्वर की ही प्रतिमा है। ___....अहिंसा की तालीम के लिए जो दूसरी जरूरी चीज है उस पर आता हूँ। इस्लाम का 'अल्लाह' ईसाईयों का 'गॉड' और हिन्दुओं का 'ईश्वर' असल में एक ही है।
तीसरी जरूरी चीज है सत्य और पवित्रता को स्वीकार करना, क्योंकि यह नहीं हो सकता कि मनुष्य ईश्वर के विषय में तो प्रवल आस्था रखने का दावा करे और वह पवित्र और सत्यनिष्ठ न हो। इससे प्रकट होता है कि अहिंसा की तालीम में भी उन्होंने ईश्वरीय आस्था को महत्त्वपूर्ण माना। उनका यह मानना था कि अगर हम अहिंसा और सत्य के सच्चे भक्त हैं; तो ईश्वर हमें कठिन
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