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________________ बन गयी। कर्तव्य परायणता, सेवा-भाव, सत्यनिष्ठा, असीम धार्मिक आस्था, सर्वधर्म समभाव आदि के संस्कार अपने पारिवारिक वातावरण में प्राप्त हुए थे। अपनी आत्म कथा में लिखा-'राजकोट में मुझे सब संप्रदायों के प्रति समान भाव रखने की शिक्षा मिली। मैंने हिन्दू धर्म के प्रत्येक सम्प्रदाय का आदर करना सीखा, क्योंकि माता-पिता वैष्णव-मंदिर में, शिवालय में और राम-मन्दिर में भी जाते और हम भाइयों को भी साथ ले जाते या भेजते थे। पिताजी के पास जैन धर्माचर्यों में से भी कोई न कोई हमेशा आते रहते थे। पिताजी उन्हें भिक्षा भी देते थे। वे उनके साथ धर्म और व्यवहार की बातें किया करते थे। इसके सिवा पिताजी के मुसलमान और पारसी मित्र भी थे। घर आँगन के समन्वयात्मक धार्मिक माहौल की छवि गांधी के जीवन में अंकित होती गयी। यह एक सुयोग ही था कि सौराष्ट्र के पोरबंदर शहर में उनका जन्म हआ। वह मकान वैष्णव मंदिर से सटा, राम मंदिर के सामने और शिवालय के नजदीक बना हुआ मानो कोई आश्रम ही हो। परिवार के बड़े-बूढ़े लोगों के लिए राम मंदिर दिन की बैठक बनता। प्रातः सायं मंदिर में रामायण की कथा और भजन-कीर्तन होते थे। जिसका बालक मोहन रसिक था। इसका जिक्र गांधी ने आत्म कथा में किया-जिस चीज का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा वह था रामायण का पारायण। मेरी उम्र तेरह साल की रही होगी, पर याद पड़ता है कि उनके पाठ में मुझे खुब रस आता था। यह रामायण श्रवण रामायण के प्रति मेरे अत्यधिक प्रेम की बुनियाद है। आज मैं तुलसीदास की रामायण को भक्तिमार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूँ। बाल्यकाल में ही 'राम-नाम' की महिमा से गांधी परिचित हो गये थे। इसका निमित्त प्रसंग था-बाल्यावस्था में उन्हें भूत प्रेत का डर लगता था और समय कुसमय अंधेरे में जाने से वे डरते थे। रम्भा नाम की नौकरानी ने बताया कि राम-नाम का जप करने से भूतप्रेत भाग जाते हैं तब से ही बालक गांधी ने राम-नाम को अपनाया। यही राम-नाम जीवन भर उनका मूल मंत्र रहा। मरते समय भी उन्होंने राम का ही नाम लिया। प्रकट रूप से बचपन में ही उन्हें अपनी आस्था निर्माण के निमित्त मिलते रहें। पिता सत्य प्रिय, शूर, उदार, शुद्ध न्याय प्रिय राजनैतिक व्यक्ति थे। उनके दादा तथा पिता तत्कालीन काठियावाड़ की रियासतों के दीवान, प्रधान रहे थे। वे राजभक्ति, कर्तव्यनिष्ठा, सदाचारिता एवं जनहित कल्याणकारी कार्यों के लिए प्रसिद्ध थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिता-दादा के ये संस्कार में अधिक सक्रियता से संचरित हये। प्रबद्ध चर्चा के रसिक पिता करमचंद बीमार होने पर हिन्दू पंडितों, जैन मुनियों, पारसी दरवेशों और मुस्लिम औलियों को घर बुलाकर उनसे धर्म चर्चा और वाद-विवाद सुना करते। बचपन में बीमार पिता की तीमारदारी के समय गांधी को भी उन चर्चाओं और बहसों को सुनने का मौका मिल जाया करता। उस समय उनको धर्म और अध्यात्म की ऊँची बातें भले ही समझ न पड़ी हो परंतु कई धर्मों के विद्वानों को एक साथ बैठकर मैत्रीपूर्ण ढंग से चर्चा करते देख धार्मिक सहिष्णता की छाप बाल मानस पर अवश्य पडती थी। जन्मदात्री, संस्कार निर्मात्री माता एवं राजनीति के पेचीदे सवाल हल करने की क्षमता भरने वाले पिता के प्रति गांधी का अपूर्व समर्पण था। अपने हृदय की भावुक प्रस्तुति में उन्होंने यहाँ तक कहा 'जगत् में माँ-बाप का प्रेम जैसा मैंने जाना है, ऐसा जगत् में कोई मुझसे अधिक माँ या बाप संस्कारों की मूल इकाई । 131
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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