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________________ (१) ईर्यासमिति- किसी भी जन्तु को केश न हो, इसलिए सावधानीपूर्वक चलना। (२) भाषा समिति- सत्य, हितकारी, परिमित और संदेह रहित वचन बोलना। (३) एषणा समिति - जीवन यात्रा में आवश्यक निर्दोष साधनों को जुटाने के लिए सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना। (४)आदान-निक्षेपण समिति- वस्तु मात्र को भलीभाँति देखकर, प्रमार्जित करके उठाना या रखना। (५) उत्सर्ग समिति- शरीर के मल-मूत्र आदि अनुपयोगी वस्तुओं का विसर्जन जीवरहित स्थान में देखभाल कर एवं परिमार्जित करके करना। अर्थात् साधक चलना-फिरना, बोलना, भोजन करना आदि जो भी प्रवृत्ति करे, वह विवेकपूर्वक एवं सजगता से करे। तीन गुप्ति सम्यग्योगानिग्रहो गुप्तिः - (तत्त्वार्थ सूत्र ८४) कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया रूप योग का सभी प्रकार से निग्रह करना अशुभ प्रवृत्तियों को रोकना गुप्ति है। गुप्तियाँ तीन हैं, यथा तीन गुप्तियाँ- मन, वचन और काया को अशुभ प्रवृत्तियों से रोकना गुप्ति है। ये तीन हैं (१) मनोगुप्ति- मन को अशुभ संकल्पों, विचारों व दुश्चितन से रहित रखना। (२) वचन गुप्ति - वचन का दुष्प्रयोग न करना अथवा मौन धारण करना। (३) कायागुप्ति- शरीर की प्रवृत्तियों का नियमन तथा निश्चलन करना। समिति में सक्रिया के प्रवर्तन की मुख्यता है और गुप्ति में असक्रिया के निषेध की मुख्यता है। सारांश यह है कि 'असंजमे नियत्ति च, संजमे य पवत्तणं' -- उत्तराध्ययन ३१.२ अर्थात् असंयम में निवृत्ति एवं संयम में प्रवृत्ति करना ही चारित्र है। [68] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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