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विशुद्धि का साधक ही होता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि शुद्धोपयोग की अवस्था में पुण्य के आस्रव से स्थिति बंध नहीं होता। तीर्थंकर अथवा केवली सदैव शद्धोपयोग में रहते हैं, किन्तु उनको भी अपनी योग प्रवृत्ति के द्वारा वेदनीय कर्म का आस्रव जो पुण्य प्रकृति का आस्रव है या- ईर्यापथिक आस्रव है, होता ही रहता है। इसका फलित यह है कि शुभयोग शुद्धापेयोग में बाधक नहीं है, अपितु साधक ही हैं।
कसायपाहुड की जयधवला टीका में अनुकंपा और शुद्धोपयोग से भी आस्रव माना है, किन्तु ऐसा आस्रव हेय नहीं है। तीर्थंकर वीतराग होते हैं। उन्हें शुद्धोपयोग दशा में भी योग की सत्ता बने रहने पर शुभास्रव तो होता ही है। अतः शुद्धोपयोग
और शुभास्रव विरोधी नहीं हैं। शुद्धोपयोग आत्मा की अवस्था है जबकि शुभ योग, जो पुण्य बंध का कारण है मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का ही परिणाम है। जब तक जीवन है, योग होंगे ही। यदि शुभ योग नहीं होंगे तो अशुभ योग होंगे, अतः अशुभ से निवृत्ति होने पर ही शुभ योग के द्वारा शुद्धोपयोग की प्राप्ति संभव है। शुभ-योग और शुद्धोपयोग में साधन-साध्य भाव है, अतः उन्हें अविरोधी मानकर शुद्धोपयोग दशा की प्राप्ति के लिए साधन रूप शुभ योगों अर्थात् पुण्य कर्मों का अवलंबन लेना चाहिये। पाप रूपी बीमारी को हटाने के लिए पुण्य प्रवृत्ति औषधि रूप हैं। जिससे आत्मा-विशुद्धि रूप स्वास्थ्य या शुद्धोपयोग दशा की प्राप्ति होती है। वस्तुतः शुभाशुभ कर्मों से जो ऊपर उठने की बात कही जाती है उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि मोक्षरूपी साध्य की उपलब्धि होने पर व्यक्ति पुण्यपाप दोनों का अतिक्रमण कर जाता है जैसे नदी पार करने के लिए नौका की अपेक्षा होती है किन्तु जैसे ही किनारा प्राप्त हो जाता है, नौका भी छोड़ देनी पड़ती है, किन्तु इससे नौका की मूल्यवत्ता या महत्ता को कम नहीं आंकना चाहिये। पार होने के लिए उसकी आवश्यकता तो अपरिहार्य रूप से होती है। वैसे ही संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिए पुण्य रूपी नौका अपेक्षित है, क्योंकि साधना की पूर्णता मानवीय गुणों की अभिव्यक्ति में है और मानवीय गुणों की अभिव्यक्ति के लिए पुण्य कर्मों का सम्पादन आवश्यक है, अतः पुण्य कर्मों की उपादेयता निर्विवाद है।
पुण्य कर्मों को बंधन रूप मानकर जो उनकी उपेक्षा की जाती है वह बंधन के स्वरूप की सही समझ नहीं होने के कारण है। पुण्य कर्म जब निष्काम भाव से किये जाते हैं तो उनसे बंधन नहीं होता है। यदि जैन धर्म की शास्त्रीय भाषा में कहे तो उनसे मात्र ईर्यापथिक बंध होता है, जो वस्तुत: बंध नहीं है । बंधन जब भी होगा
पुण्य-पाप तत्त्व
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