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कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि पुण्य कर्म करने में प्रशस्त राग होता है और प्रशस्त राग भी संसार परिभ्रमण का कारण होता है। वस्तुतः यहाँ हम दो बातों को आपस में मिला देते हैं। कर्म की प्रशस्तता और कर्म रागात्मकता ये दो अलगअलग तथ्य हैं। जो प्रशस्त कर्म हो वह रागात्मक भी हो, यह आवश्यक नहीं है। बंधन में डालने वाला तत्त्व राग-द्वेष या कषाय है, जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार उसकी अनुपस्थिति में बंधन नहीं होता है। वस्तुतः प्रशस्तकर्म का सम्पादन बंधन का कारण नहीं है। सभी सद्प्रवृत्तियाँ या पुण्य कर्म रागात्मकता या आसक्ति से उत्पन्न नहीं होते हैं। प्रज्ञावान आत्माओं के कर्म कर्त्तव्य भाव से होते हैं और मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से किया गया विनय या सेवा रूप कार्य बंधन का नहीं, अपितु निर्जरा का ही हेतु होता है। इस प्रकार कर्म-फल की आकांक्षा, ममत्व बुद्धि या कषाय ही उसके बंधन के कारण हैं क्योंकि उनकी उपस्थिति में ही कर्म का स्थितिबंध होता है और स्थिति को लेकर जो कर्म बंधते हैं, वे ही संसार परिभ्रमण के कारण और मुक्ति में बाधक होते हैं, न कि कर्त्तव्य बुद्धि से किये गये सत्कर्म या पुण्यकर्म। शुभ एवं शुद्ध अविरोधी है
सामान्यतया यह समझा जाता है कि पुण्य प्रकृतियों और निवृत्तिमूलक धर्मसाधना में अथवा शुभ और शुद्ध में परस्पर विरोध है, किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणाा है। शुद्ध दशा की उपलब्धि के लिए शुभ की साधना आवश्यक होती है, जैसे कपड़े के मैला को हटाने के लिए साबुन आवश्यक है। हम यह जानते हैं कि अशुभ प्रवृत्तियों में निवृत्ति तभी संभव होती है जब शुभ योग में प्रवृत्ति होती है। अशुभ से बचने के लिए शुभ में अथवा पाप प्रवृत्तियों से बचने के लिए पुण्य प्रवृत्तियों में जुड़ना आवश्यक है। हमारी चित्तवृत्ति प्रारम्भिक अवस्था में निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकती। चित्त विशुद्धि के लिए सर्वप्रथम चित्त में लोक मंगल या लोक कल्याण की भावना को स्थान देना होता है। अशुभ से शुभ की ओर बढ़ना होता है और शुभ की ओर बढ़ना ही शुद्ध की ओर बढ़ना है। जिस प्रकार वस्त्र की शुद्धि के लिए पहले साबुन आदि लगाना होता है, साबुन आदि द्रव्य वस्त्र की विशुद्धि में साधक ही होते हैं बाधक नहीं। उसी प्रकार निष्काम भाव से किये गये लोग मंगल के कार्य भी मुक्ति की साधक होते हैं बाधक नहीं। जिस प्रकार वस्त्र की शुद्धि-प्रक्रिया में भी वस्त्र से मैल को निकालने का ही प्रयत्न किया जाता है साबुन तो मैल के निकालने के साथ ही स्वतः ही निकल जाता है। उसी प्रकार चाहे पुण्य प्रवृत्तियों के निमित्त से आस्रव होता भी हो, किन्तु वह आस्रव आत्म
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जैनतत्त्व सार