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________________ जयधवला टीका के उपर्युक्त उद्धरण में संक्लेश और विशुद्धि की परिभाषा देते हुए कषाय शब्द के पहले समुत्पन्न विशेषण लगाया गया है जो वर्तमान क्षण में उत्पन्न कषाय का अर्थात् उदयमान, विद्यमान कषाय का सूचक है। इसका अभिप्राय यह है कि संक्लेश-विशुद्धि का संबंध वर्तमान में उदयमान-विद्यमान कषाय में वृद्धि व हानि होने से हैं, कम कषाय व अधिक कषाय से नहीं है। यदि कम कषाय को विशुद्धि और अधिक कषाय को संक्लेश माना जाय तो सदैव शुक्ल लेश्या की अवस्था को विशुद्धि और कृष्ण लेश्या की अवस्था को संक्लेश मानना होगा। इस प्रकार दशवें सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में शुक्ल लेश्या होने से विशुद्धि ही मानना होगा। संक्लेश नहीं माना जा सकेगा। जिससे भगवती सूत्र के शतक २५ उद्देशक ७ के उपर्युक्त कथन का विरोध हो जायेगा। जो किसी को भी इष्ट नहीं होगा। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि संक्लेश-वुिशद्धि का, पाप-पुण्य तत्त्व का संबंध उदयमान कषाय में हानि-वृद्धि होने से है, कम व अधिक कषाय से नहीं है। जैसा कि भगवती सूत्र में प्राप्त निम्न वर्णन से स्पष्ट होता है प्रश्न- से णूणं भंते! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता णीललेस्सेसु णेरइएसु उववजति? उत्तर- हंता, गोयमा। जाव उववजंति। प्रश्न- से केणटेणं जाव उववजति? उत्तर- गोयमा! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा णीललेस्सं परिणमइ,णीललेस्सं परिणमित्ताणीललेस्सेसुणेरइएसु उववजति से तेणटेणं गोयमा! जाव उववजति। - भगवती सूत्र शतक १३ उद्देशक १ __हे भगवन्! कृष्णलेश्यी यावत् शुक्तलेश्यी होकर जीव नील लेश्या वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है? प्रश्न- हाँ गौतम। यातव् उत्पन्न होता है। प्रश्न- हे भगवन् । इस का क्या कारण है? उत्तर- हे गौतम! लेश्या के स्थान संक्लेश को प्राप्त होते हुए और विशुद्धि को प्राप्त होते हुए, वह जीव नीललेश्या रूप मे परिणत होता है और नीललेश्या रूप से परिणत होने के बाद वह नीललेश्या नैरयिकों में उत्पन्न होता है। इसलिये हे गौतम। पूर्वोक्त रूप से कहा गया है। [38] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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