________________
अर्थात् अनुकम्पा और शुद्ध उपयोग पुण्यास्रव स्वरूप है या पुण्यासव के कारण हैं तथा इनसे विपरीत अर्थात् निर्दयता और अशुद्ध उपयोग ये पापासव के कारण हैं। इस प्रकार आस्रव के हेतु कहे गये हैं।
तात्पर्य यह है कि पाप-पुण्य का आधार संक्लेश-विशुद्धि है। विशुद्धि से पुण्य का उपार्जन (आस्रव) होता है पुण्य बढ़ता है इसलिए विशुद्धि रूप शुद्धोपयोग को पुण्य का आस्रव कहा गया है तथा संक्लेश से पाप का अर्जन (आस्रव) होता है पाप बढ़ता है इसलिए संक्लेश रूप अशुद्धोपयोग को पाप का हेतु कहा है। अतः पुण्य पाप का आधार विशुद्धि-संक्लेश है। कम व अधिक कषाय का उदय नहीं है। जेसा कि कहा है- को संकिलेसो णाम? कोहमाणमायालोहपरिणाम विसेसो।... को विसोही णाम? जेसु जीवपरिणामेसु समुप्पण्णेसु कसायाणं हानि होदि।.. - जय धवल, पुस्तक ४ पृष्ठ १५ एवं ४१ अर्थात् क्रोध, मान, माया
और लोभ के परिणामों में वृद्धि होना संक्लेश है और जीव के जिन परिणामों से कषायों की हानि (कमी) होती है, उसे विशुद्धि कहते हैं । कषाय में कमी होने से आत्मा की विशुद्धि तथा शुद्धि बढ़ती है अतः इसे विशुद्धि व शुद्धोपयोग कहा जाता है और कषाय में वृद्धि होने से आत्मा में संक्लेश व अशुद्धि बढ़ती है। अतः इसे संक्लेश व अशुद्धोपयोग कहा है।
ऊपर पाप-पुण्य संक्लेश-विशुद्धि पर अवलंबित है, यह कहा गया है अर्थात् कर्मों का शुभाशुभत्व उनके कर्ता के शुभाशुभ भावों पर अवलंबित है। कर्ता के शुभाशुभ भावों का कर्मों के रूप में प्रकटीकरण उन कर्मों के प्रकृति व अनुभाव के रूप में होता है। शुभभावों से पुण्य कर्म प्रकृतियों के अनुभाव की एवं अशुभभाव से पाप प्रकृतियों के अनुभाव की वृद्धि होती है। शुभ (पुण्य) कर्म प्रकृतियों में यह अनुभाव की वृद्धि विशुद्धि से, कषायादि दोषों की कमी से होती है और अशभ (पाप) कर्म प्रकृतियों में यह अनुभाव की वृद्धि संक्लेश से अर्थात् कषायादि दोषों की वृद्धि से होती है। अतः पाप-पुण्य कर्मों का एवं उनकी न्यूनाधिकता का आधार उनका अनुभाव है, प्रदेश व स्थिति बंध नहीं है क्योकि कर्मों के प्रदेशों के न्यूनाधिक होने से उनके अनुभाव न्यूनाधिक नहीं होता है और पाप-पुण्य दोनों प्रकार के कर्मों का स्थितिबंध कषाय से होता है। अत: स्थितिबंध पाप कर्मों का अधिक हो अथवा पुण्य कर्मों का, तीन शुभ आयुकर्मों के अतिरिक्त समस्त कर्म प्रकृतियों का अशुभ ही है। इसलिए पुण्य-पाप कर्मों के शुभत्व-अशुभत्व का आधार उनका अनुभाव
ही है।
पुण्य-पाप तत्त्व
[37]