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अर्थात् संसारस्थ और सिद्ध दो प्रकार के जीव हैं। सर्वथा कर्मयुक्त आत्मा को सिद्ध कहते हैं और संसार में स्थित आत्मा कर्मों से बंधा होता है उसे संसारस्थ (संसारी) कहते हैं। संसारी जीव दो प्रकार के हैंसंसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते वियाहिया तसा थावरा चेव।।
- उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३६ गा. ६८ अर्थात् संसारी जीव दो प्रकार के हैं- त्रस और स्थावर।
जिसमें जानने, देखने (अनुभव) करने की शक्ति हो, चेतना गुण हो, वह जीव है। जीव के १४ भेद हैं:
एगिदिय सुहुमियरा, सन्नियर पणिंदिया य सवितिचउ। अपज्जत्ता पजत्ता, कमेण चउदस जिअ ठाणा।।
अर्थ - १. एकेन्द्रिय सूक्ष्म, २. एकेन्द्रिय बादर, ३. द्वीन्द्रिय, ४. त्रीन्द्रिय, ५. चतुरिन्द्रिय, ६. असंज्ञी पंचेन्द्रिय और ६. संज्ञी पंचेन्द्रिय इन सात प्रकार के जीवों के पर्याप्ता और अपर्याप्ता कुल १४ प्रकार के जीव हैं।
संज्ञी-असंज्ञी - जैन दर्शन में मन वाले जीव संज्ञी कहलाते हैं और जिनके मन नहीं वे जीव असंज्ञी कहलाते हैं। सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों के पर्याप्ता और अपर्याप्ता जीव असंज्ञी ही होते हैं। पंचेन्द्रिय जीव असंज्ञी और संज्ञी दोनों प्रकार के होते हैं। इनमें संज्ञी पंचेन्द्रिय का पर्याप्ता और अपर्याप्ता जीव संज्ञी है। शेष बारह प्रकार के जीव असंज्ञी हैं।
पर्याप्ता और अपर्याप्ता - पर्याप्तिः नाम शक्तिः। अर्थात् वह विशेष शक्ति जिससे जीव पुद्गल को ग्रहण करके उन्हें आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि रूपों में परिणत करता है, पर्याप्ति कही जाती है। पर्याप्ति ६ हैं:- आहार सरीरिन्दियपज्जती-आण-पाण-भास-मणे। अर्थात् १. आहार पर्याप्ति, २. शरीर पर्याप्ति, ३. इन्द्रिय पर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, ५. भाषा पर्याप्ति और ६. मन पर्याप्ति । ये ६ पर्याप्तियाँ हैं।
उपर्युक्त पर्याप्तियों में पहले की चार पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीव में मिलती है। छः ही पर्याप्तियाँ केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय में मिलती है। शेष पांच पर्याप्ति द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में मिलती है।
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जैनतत्त्व सार