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निर्विकल्पता से निज रस का आस्वादन - अनुभव होता है, यह भोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम है ।
निज रस- आत्मानुभव का निरन्तर बना रहना उपभोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम है।
निर्विकल्पता वहीं संभव है जहाँ कर्तृत्वभाव नहीं है अर्थात् जहाँ अप्रयत्न है एवं अक्रियता है । अप्रयत्न होना ही असमर्थता का अंत करना है । यह वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम है ।
निर्विकल्प साधक को अपने लिए संसार से कुछ नहीं चाहिये । उसका सारा जीवन जगत् के हित या कल्याण के लिए होता है । उसके हृदय में करुणा का सागर उमड़ता रहता है, यही दानान्तराय कर्म का क्षयोपशम या क्षय है । निर्विकल्पता निर्दोषता की द्योतक है। यही चारित्र मोहनीय का उपशम या क्षय रूप चारित्र है ।
10. निर्विकल्पता में 'यथाभूत तथागत' का अर्थात् जो जैसा है, उसे वैसा ही अनुभव करने रूप ( बोध, विज्ञान) सत्य का साक्षात्कार होता है। यही सम्यग्दर्शन है। तात्पर्य यह है कि निर्विकल्पता या समता से चैतन्य के नव गुणों या नौ उपलब्धियों का प्रकटीकरण होता है । यही नव क्षायिकभाव, चेतना के मुख्य गुण हैं । निर्विकल्पता या समता (समभाव) ही सामायिक है। यही ध्यान है, यही साधना है, यही मुक्ति का मार्ग है।
11. कर्म - सिद्धान्तानुसार जितनी - जितनी निर्विकल्पता स्थायी होती जाती है, उतनीउतनी समता पुष्ट होती जाती है । समता में स्थित रहना ही धर्म-साधना है, धर्म ध्यान है तथा जितना राग-द्वेष कम होता जाता है उतने- उतने दुष्कर्मों (पापों) के स्थिति व अनुभाग घटते जाते हैं अर्थात् कर्मों की निर्जरा होती जाती है। 12. दर्शन गुण की परिपूर्णता ही प्रकट होना (केवल दर्शन) ही स्वरूप में अवस्थित होना है, साध्य को प्राप्त करना है ।
जीव के प्रकार
जीव दो प्रकार के हैं
संसारत्था या सिद्धा य, दुविहा जीवा वियाहिया
जीव-अजीव तत्त्व
उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३६ गा. ४४
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