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कोई भी घटना क्षुब्ध नहीं करती। उन्हें संसार की सब घटनाओं, परिस्थितियों में सर्वत्र शुभता, सुन्दरता व हितकारिता का ही दर्शन होता है। यही अनन्त भोग की उपलब्धि है। अनन्त परिभोग (अनन्त माधुर्य) ____ वीतरागता की चौथी उपलब्धि अनन्त परिभोग या अनन्त माधुर्य है। किसी सुख का बार-बार या बराबर मिलते रहना ही परिभोग है-माधुर्य है। यह नियम है कि विषय-भोग का सुख क्षणिक होता है। वह सुख दो क्षण भी एक-सा नहीं रहता, प्रतिक्षण क्षीण होता है और अन्त में नीरसता (सुखरहित अवस्था) में बदल जाता है। जो सुख इस क्षण भोग लिया वह सुख दूसरे क्षण नहीं मिलेगा, उसमें क्षीणता आ ही जायेगी। एक बार में मिला हुआ सुख दुबारा कभी नहीं मिलेगा, उसमें क्षीणता आयेगी ही, वह जीर्ण होगा ही। यही कारण है कि हम अपने जीवन में खाने, पीने, पहनने, देखने, सुनने, सूंघने आदि के सैकड़ों सुखों का भोग प्रतिदिन करते रहे, परन्तु उनमें से कोई भी सुख आज तक नहीं रहा, सुख में लेशमात्र भी वृद्धि नहीं हुई। जैसे रेलयात्रा में वस्तुएँ सामने से आती और पीछे जाती प्रतीत होती हैं, इसी प्रकार सुख आता और जाता प्रतीत होता रहा, रहा कुछ भी नहीं। फलतः सुख पाने की भूख ज्यों-की-त्यों बनी हुई है, उसमें किंचित् भी कमी नहीं हुई तथा आगे भी कितनी ही सुख-सामग्री संगृहीत कर उनसे बार-बार सुख भोगा जाये तब भी न सुख में वृद्धि होने वाली है और न सुख की भूख मिटने वाली है, अर्थात् विषयसुख का परिणाम शून्य है तथा सुख के भोगी को असंख्य दुःख भोगने ही पड़ते हैं। अतः विषय-सुख के त्याग से किसी भी प्रकार की लेशमात्र भी हानि नहीं होने वाली है, प्रत्युत विषय-सुख के त्याग से निजसुख की उपलब्धि होती है।
निजसुख की अभिव्यक्ति प्रेम के रूप में होती है। प्रेम का रस नित नूतन रहता है, यह सागर की तरह लहराता है। न तो इसकी क्षति होती है, न इसकी निवृत्ति होती है, न इसकी पूर्ति होती है, न इसकी तृप्ति होती है और न इसमें अतृप्ति ही रहती है। यह क्षति, निवृत्ति, पूर्ति, अपूर्ति, तृप्ति, अतृप्ति से रहित विलक्षण रस या सुख है। यही अनन्त परिभोग है। इसकी अभिव्यक्ति विषय-सुख के त्यागी 'वीतराग' को ही होती है। यह वीतरागता की ही विभूति है। इसे परमात्मा का माधुर्य गुण भी कहा जा सकता है। माधुर्य (मधुरता) है रस का निरन्तर बराबर बना रहना। यही विभूति सच्ची 'ऋद्धि' है। यही अनन्त परिभोग उपलब्धि है।
मोक्ष तत्त्व
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