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है। वे किसी को भी सीमित संख्या में ही मिल पाती हैं और जो मिलती हैं उन सब वस्तुओं का भोग करना भी शक्य नहीं है, कारण कि इन्द्रियों के भोग की शक्ति सीमित होती है। अतः सीमित वस्तुओं से तथा इन्द्रिय भोग से मिलने वाला सुख सीमित होता है, वह पूर्ण व अखण्ड नहीं होता। जो अखण्ड नहीं होता वह अबाधित नहीं होता। यही कारण है कि विषय-सुख में पूर्णता कभी नहीं होती। विषय-सुख किसी को कितना ही मिले, उस समय किसी-न-किसी प्रकार का अभाव रहता ही है। ऐसी कोई परिस्थिति है ही नहीं जिसमें किसी भी प्रकार का अभाव न हो।
अभाव किसी को भी अच्छा नहीं लगता। अत: वह भोग का बाधक है। इसीलिए जिसे अपूर्ण, खण्डित व बाधित सुख से बचना एवं पूर्ण, अखण्ड व अबाधित सुख पाना इष्ट है, उसे वस्तुओं एवं प्रवृत्ति से मिलने वाले सुख का त्याग करना ही होगा। वस्तुओं के सुख के त्याग से विषय इन्द्रियों में और इन्द्रियाँ मन में लीन हो जाती हैं। फिर मन 'अमन' (निर्विकल्प) हो जाता है जिसके होते ही बुद्धि सम हो जाती है। जिससे साधक स्व में स्थित हो जाता है अर्थात् स्वाधीन तथा मुक्त हो जाता है। उसे पराधीनता व बन्धन से छुटकारा मिल जाता है।
पराधीनता से छुटकारा तथा स्वाधीनता की अभिव्यक्ति युगपत् होती है। स्वाधीनता से स्व में स्थिति तथा स्थिरता हो जाती है। फलस्वरूप स्व-रस, निजरस, अविनाशी का रस या सुख मिलता है। अविनाशी से मिलने वाला रस या सुख भी अविनाशी होता है, अनन्त होता है। यह अनन्त रस रूप जीवन ही अनन्त भोग की, अनन्त सौन्दर्य की उपलब्धि है जो विषय-सुख के भोग के त्याग से ही सम्भव है। विषय-सुख का पूर्ण त्याग ही वीतराग अवस्था है। वीतराग जीवन निर्विकार जीवन है। निर्विकारता में अनन्त सौन्दर्य है, विकार घृणायोग्य होता है। अतः जहाँ वीतरागता है वहाँ अनन्त सौन्दर्य है, अनन्त रस (सुख) है, अनन्त भोग है। तात्पर्य यह निकला कि सीमित सौन्दर्य व भोग के त्याग में ही असीम, अनन्त सौन्दर्य व भोग की उपलब्धि या अभिव्यक्ति होती है।
__संसार की समस्त घटनाएँ कारण-कार्य के नियमानुसार नैसर्गिक व प्राकृतिक विधान से घटती हैं। प्राकृतिक विधान में किसी का भी अहित नहीं है। यहाँ तक कि प्राकृतिक घटना से आया हुआ दुःख भी दोषों के त्याग की शिक्षा देने एवं पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा करने वाला ही होता है। शिक्षा व कर्म-निर्जरा प्राणी के लिए हितकर ही होती है। वीतराग इस तथ्य से पूर्ण परिचित होते हैं। अतः उन्हें संसार की
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जैनतत्त्व सार