________________
क्षय है। अनन्तदानी पुरुष शरीर, बुद्धि, ज्ञान, बल, योग्यता आदि अपना सर्वस्व जगत् के हित के लिए समर्पित कर देता है, अपने सुखभोग के लिए कुछ भी बचाकर नहीं रखता है। वीतराग की अनन्त करुणा, अनन्त मैत्रीभाव एवं अनन्त वत्सलता अनन्तदान के ही विभिन्न रूप है।
कामना-अपूर्ति की अवस्था में अभाव का अनुभव होना ही लाभान्तराय है। कामना के न रहने पर कुछ भी अभाव एवं प्राप्त करना शेष नहीं रहता है। अभाव एवं प्राप्त करना शेष न रहना ही सच्ची समृद्धि एवं सम्पन्नता है। जहाँ वीतरागता है वहाँ कामनाओं का अभाव है, अतः वहाँ अनन्त लाभ है। लाभ इसलिए है कि वहाँ कुछ भी प्राप्त करना एवं अभाव शेष नहीं रहता है।
भोगान्तराय में भोग शब्द का अर्थ ब्राह्म विषयभोग न होकर अनन्त सौन्दर्य है। निज स्वभाव के सूख की बाधक इच्छा ही भोगान्तराय है। भोगान्तराय के पूर्ण क्षय से अनन्त भोग अथवा अनन्त सौन्दर्य की उपलब्धि है। यह विषयसुख के भोग के त्याग से ही प्राप्य है। वीतराग का जीवन निर्विकार होता है, निर्विकारता में ही अनन्त सौन्दर्य है, अनन्त भोग है।
आत्मिक भोग-जन्य सुख का बार-बार या निरन्तर मिलते रहना उपभोग है, माधुर्य है। इसमें बाधा उत्पन्न होना उपभोगान्तराय है। सबके प्रति मैत्री एवं प्रेम का रस नित नूतन बना रहता है। यह क्षति, निवृति, अपूर्ति, तृप्ति एवं अतृप्ति से रहित विलक्षण रस या सुख है। यही अनन्त उपभोग है।
वीर्य शब्द सामर्थ्य का द्योतक है। वीतराग केवली अनन्त सामर्थ्यवान् हैं, यद्यपि वे अपने से भिन्न शरीर, संसार आदि को बानने या बिगाड़ने में समर्थ नहीं हैं, किसी का मरण टालने, आयु बढ़ाने, किसी के कर्म काटने में भी वे समर्थ नहीं हैं, किन्तु अपने लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करने में पूर्ण समर्थ है इसके लिए उन्हें कुछ भी करना शेष नहीं है, अतः उनके लेशमात्र भी अन्तराय कर्म का उदय नहीं रहता है। दोषों का त्यागने का सामर्थ्य ही वीर्य है। वीतराग ऐसे अनन्तवीर्य से युक्त होते हैं।
घर-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति को लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से मानना तथा विषय-भोगों की सामग्री को भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्म के क्षयोयशम से मानना कर्म-सिद्धान्त एवं आगम से सम्मत नहीं है। यदि लाभान्तराय, भोगान्तराय आदि के क्षयोपशम एवं क्षय से घर-सम्पत्ति एवं भोग्य
बंध तत्त्व
[ 229]