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तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन, असद्गणों को प्रकाशन- ये नीच गोत्र के बंध हेतु हैं। इसके विपरीत पर प्रशंसा, आत्मनिन्दा, दूसरों के सद्गुणों को प्रकाशन एवं निरभिमानता उच्चगोत्र के बंध हेतु है। ____ गोत्र कर्म के साथ मद का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जो रूप, धन, बल, तप, श्रुत आदि का मद करता है वह नीच गोत्र का उपार्जन करता है तथा जो इनका मद नहीं करता है वह उच्चगोत्र का उपार्जन करता है। गोत्र कम का जब पूर्णक्षय हो जाता है तो अगुरुलघु गुण प्रकट होता है। गोत्रकर्म पुद्गगलविपाकी, भवविपाक एवं क्षेत्रविपाकी नहीं हैं, अपितु जीवविपाकी है, जीव विपाकी होने से इसका सम्बन्ध जीव को भावों से है, शरीर की सुन्दरता-असुन्दरता से नहीं, जन्म किस घर हुआ इससे भी नहीं तथा किस आर्य-अनार्य क्षेत्र में हुआ, इससे भी नहीं। ___ अन्तरायकर्म के सम्बन्ध में लोढ़ा साहब से सर्वथा नतून चिन्तन दिया। है, जो इस कर्म से सम्बद्ध अनेक विसंगतियों का निराकरण करता है। अन्तराय का अर्थ है विघ्न । अन्तराय कर्म के पाँच भेद हैं-दानान्तराय, लाभन्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। सामान्यत: यह माना जाता है कि दान देने में विघ्न दानान्तराय, आहारादि का लाभ मिलने में विघ्न लाभान्तराय, भोग में बाधा भोगान्तराय, उपभोग में बाधा उपभोगान्तराय तथा पुरुषार्थ करने में विघ्न वीर्यान्तराय कर्म है। ये अर्थ अनेक विसंगतियों से युक्त हैं, क्योंकि जो इन कर्मों से रहित अरिहन्त होते हैं उनके कौनसा दान, लाभ, भोग एवं उपभोग होता है जो दानान्तराय आदि के क्षय से प्राप्त होता है। वहाँ तो अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग एवं अनन्तवीर्य होते हैं जो उपर्युक्त अर्थों को मानने पर घटित नहीं हो पाते हैं। अरिहन्त अनन्तदान किस प्रकार करते है? उन्हें अनन्त लाभ किस प्रकार होतो है? इसी प्रकार अनन्त भोग एवं उपभोग उनमें किस रूप में घटित होतो हैं? अनन्तवीर्य तो उनमें पुरुषार्थ की पराकाष्ठा के कारण स्वीकार किया जा सकता है।
प्रबुद्ध लेखक श्री लोढ़ा साहब के दान का अर्थ उदारता स्वीकार किया है, अतः वे उदारता के अभाव और स्वार्थपरता को दानान्तराय मानते हैं। दानान्तराय के होने पर दान देने की भावना नहीं जगती। उदारता की उदात्त भावना का होना दानान्तराय का क्षयोपशम है तथा उदारता का परिपूर्ण हो जाना दानान्तराय का
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जैनतत्त्व सार