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मान है। मान के त्याग से होने वाले मृदुता आदि गुणों के लिए प्रयत्नशील न होना, मान का त्याग न करना प्रत्याख्यानावरण मान कषाय है। मान की उत्पत्ति से दीनता और अभिमान की अग्नि में जलना संज्वलन मान है। वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, परिवार, धन- सम्पति आदि सबको सदा अपना मानते रहना, ये सब मेरे बने रहें, इनका वियोग या अंत कभी न हो, यह भाव अनन्तानुबंधी माया है। माया दुःखकारी है, फिर भी उससे छूटने की अभिलाषा उत्पन्न न होना अप्रत्याख्यानावरण माया है । माया के त्याग से स्वाधीनता, सरलता आदि गुणों की उपलिब्ध होती है, फिर भी माया का, ममता का त्याग न करना प्रत्याख्यानावरण माया है। माया या ममता की रुचि, उत्पत्ति एवं स्मृति से पराधीनता, विवशता की ज्याला में जलना संज्वलन लोभ है ।
हास्य, रति, अरति एवं शोक के पुस्तक में एकाधिक अर्थ दिए गए हैं। लोढ़ा सा. कहते हैं कि वर्तमान में हास्य कषाय का अर्थ हंसना किया जाता है जो आगम एवं कर्मसिद्धान्त से मेल नहीं खाता है । उनके अनुसार हास्यादि के अर्थ इस प्रकार हैं
वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति की अनुकूलता का रुचिकर लगना रति है और इनकी प्रतिकूलता का अरुचिकर लगना अरति है । अनुकूलता में हर्ष होना हास्य तथा इसी प्रकार अरति एवं शोक का जोड़ा है। एक अन्य परिभाषा में उन्होंने कहा कि अनुकूलता का भोग रति है तथा रति से प्राप्त होने वाला हर्ष हास्य है । अनचाही वस्तु की भोग - प्रवृत्ति अरति है और उस भोग-प्रवृत्ति के समय होने वाला दुःखद अनुभव शोक है।
भय एवं जुगुप्सा का भी जोड़ा है। शरीर के रक्षण की इच्छा जुगुप्सा है तथा शरीर की हानि की आशंका भय है । जुगुप्सा का एक अर्थ मानसिक ग्लानि भी है। दुःख सभी को अप्रिय है, अतः दुःख आने का भय प्रायः सभी को होता है। नया दुःख न आ जाये यह आशंका भय है और आया हुआ दुःख जो कि अरुचिकर है उसका उपचार विचिकित्सा या जुगुप्सा है। जो प्राणी दुःख से घबराते हैं उन्हीं में भय और जुगुप्सा उत्पन्न होते हैं
प्रचलित धारणा के अनुसार पुरुषवेद का तात्पर्य स्त्री के साथ संभोग की अभिलाषा, स्त्रीवेद का तात्पर्य पुरुष के साथ सहवास की इच्छा तथा नपुंसकवेद का आशय दोनों के साथ साहचर्य की कामना है। लोढ़ा सा. का
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जैतत्त्व सार