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स्थानांग सूत्र में मिथ्यात्व के व्यावहारिक दृष्टि से १० प्रकार निरूपित हैं१-२ अधर्म को धर्म एवं धर्म को अधर्म श्रद्धना, ३-४ उन्मार्ग को सन्मार्ग एवं सन्मार्ग को उन्मार्ग श्रद्धना, ५-६ अजीव को जीव तथा जीव को अजीव श्रद्धना, ७-८ असाधु को साधु तथा साधु को असाधु श्रद्धना, ९ - १० अमुक्त को मुक्त तथा मुक्त को अमुक्त श्रद्धना । इनकी व्याख्या श्री लोढ़ा सा. ने अपने ढंग से की है । वे लिखते हैं कि वस्तु का स्वाभाव धर्म है और पर के संयोग से उत्पन्न हुई विभाव दशा अधर्म है। इस दृष्टि से सम्पत्ति, संतति, शक्ति, सत्ता, इन्द्रियाँ आदि के संयोग से मिलने वाला सुख विभाव है। इस सुख को स्वभाव मानना अधर्म है। इस सुख को जीवन मानना अधर्म को धर्म मानना है। इस सुख के लिए दूसरों का शोषण करना, धन का अवरहरण करना, हिंसा, झूठ आदि पाप करना भी अधर्म है। इस अधर्म को धर्म मानना मिथ्यात्व है । इसी प्रकार करुणा, क्षमा, मैत्री आदि स्वभाव रूप धर्म को विभाव मानना धर्म को अधर्म मानने रूप मिथ्यात्व है। संभोग को समधि का हेतु मानना, अतिभोग को मुक्ति का मार्ग मानना, प्रभावना के नाम पर सम्मान, सत्कार, पुरस्कार आदि सम्प्रवृत्तियों को पुण्य-बंध का हेतु कहकर इन्हें संसार - परिभ्रमण का कारण मानना सन्मार्ग को उन्मार्ग मानने रूप मिथ्यात्व है। अपने को देह मानना जीव को अजीव मानने रूप मिथ्यात्व है और देह के अस्तित्व को अपना अस्तित्व मानना अजीव को जीव मानने रूप मिथ्यात्व है और देह के अस्तित्व को अपना अस्तित्व मानना अजीव को जीव मानने रूप मिथ्यात्व है। अपने को देह मानना जीव को अजीव मानने रूप मिथ्यात्व है और देह के अस्तित्व को अपना अस्तित्व मानना अजीव को जीव मानने रूप मिथ्यात्व है । अपने को देह मान लेने से ही विषय - भोगों में गृद्ध एवं परिग्रही को सुखी एवं श्रेष्ठ मानना तथा साधु को असाधु समझने का अभिप्राय है संयमी एवं वीतराग मार्ग के आचरणकर्ता को परावलम्बी, अनाथ एवं दुःखी समझना । इसी प्रकार शरीर, इन्द्रिय, वस्तु, परिस्थिति, सम्पत्ति, सत्ता, सत्कार, परिवार आदि पर के आश्रित व्यक्ति को मुक्त समझना अमुक्त को मुक्त समझने रूप मिथ्यात्व है तथा राग-द्वेष-मोह आदि विकारों से मुक्त को दुःखी एवं पराधीन समझना मुक्त को अमुक्त समझने रूप मिथ्यात्व है।
जब तक इन मिथ्या मान्यताओं का निराकरण नहीं होता तब तक सम्यग्दर्शन एवं वीतरागता की ओर चरण नहीं बढ़ते ।
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जैतत्त्व सार